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आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

अब्दुल जब्बार पठान


दिसम्बर सन् बावन की पचीस तारीख़। थर्ड क्लास के डिब्बे में ऊपर की सीट बिस्तर बिछाने को मिल जाए, वह बड़ी बात होती है। मुझे ऊपर की सीट मिल गयी थी। सोच रहा था कि अब बम्बई तक की यात्रा में कोई असुविधा नहीं होगी। रात को ठीक से सो सकूँगा! मगर रात आयी, तो मैं वहाँ सोने की जगह भोपाल ताल की एक नाव में लेटा बूढ़े मल्लाह अब्दुल जब्बार से ग़ज़लें सुन रहा था।

भोपाल स्टेशन पर मेरा मित्र अविनाश, जो वहाँ से निकलने वाले एक हिन्दी दैनिक का सम्पादन करता था, मुझसे मिलने के लिए आया था। मगर बात करने की जगह उसने मेरा बिस्तर लपेटकर खिड़की से बाहर फेंक दिया, और ख़ुद मेरा सूटकेस लिये हुए नीचे उतर गया। इस तरह मुझे एक रात के लिए वहाँ रह जाना पड़ा।

रात को ग्यारह के बाद हम लोग घूमने निकले। घूमते हुए भोपाल ताल के पास पहुँचे, तो मन हो आया कि नाव लेकर कुछ देर झील की सैर की जाए। नाव ठीक की गयी और कुछ ही देर में हम झील के उस भाग में पहुँच गये जहाँ से चारों ओर के किनारे दूर नज़र आते थे। वहाँ आकर अविनाश के मन में न जाने क्या भावुकता जाग आयी कि उसने एक नज़र पानी पर डाली, एक दूर के किनारों पर, और पूर्णता चाहने वाले कलाकार की तरह कहा कि कितना अच्छा होता अगर इस वक़्त हममें से कोई कुछ गा सकता।

"मैं गा तो नहीं सकता, हुज़ूर" बूढ़ा मल्लाह हाथ रोककर बोला।" मगर आप चाहें, तो चन्द ग़ज़लें तरन्नुम के साथ अर्ज़ कर सकता हूँ-और माशाल्लाह चुस्त ग़ज़लें हैं।"

"ज़रूर ज़रूर!" हमने उत्साह के साथ उसके प्रस्ताव का स्वागत किया। बूढ़े मल्लाह ने एक ग़ज़ल छेड़ दी। उसका गला काफ़ी अच्छा था और सुनाने का अन्दाज़ भी शायराना था। काफी देर चप्पुओं को छोड़े वह झूम-झूमकर ग़ज़लें सुनाता रहा। एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी। मैं नाव में लेटा उसकी तरफ़ देख रहा था। उस सर्दी में भी वह सिर्फ एक तहमद लगाए था। गले में बनियान तक नहीं थी। उसकी दाढ़ी के ही नहीं, छाती के भी बाल सफ़ेद हो चुके थे। मगर जब वह चप्पू चलाने लगता, तो उसकी मांसपेशियाँ इस तरह हिलतीं जैसे उनमें फ़ौलाद भरा हो।

तीसरी ग़ज़ल सुनाकर वह खामोश हो गया। उसके खामोश हो जाने से सारा वातावरण ही बदल गया। रात, सर्दी और नाव का हिलना, इन सबका अनुभव पहले नहीं हो रहा था, अब होने लगा। झील का विस्तार भी जैसे उतनी देर के लिए सिमट गया था, अब खुल गया।

"अब लौट चलें साहब," कुछ देर बाद उसने कहा। "सर्दी बढ़ रही है और मैं अपनी चादर साथ नहीं लाया।"

अविनाश ने झट से अपना कोट उतारकर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। कहा, "लो, तुम यह पहन लो। अभी हम लौटकर नहीं चलेंगे। तुम्हें कोई ग़ालिब की चीज़ याद हो, तो यह सुनाओ।"

बूढ़े मल्लाह ने एतराज़ नहीं किया। चुपचाप अविनाश का कोट पहन लिया और ग़ालिब की एक ग़ज़ल सुनाने लगा:" मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए...।"

हम लोग उसे 'बड़े मियाँ' कहकर बुला रहे थे। उसने ग़ज़ल पूरी कर ली, तो मैंने उससे उसका नाम पूछा।

"मेरा नाम है साहब, अब्दुल जब्बार पठान," उसने कहा। 'पठान' शब्द पर उसने ख़ास ज़ोर दिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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