यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
हाथियों के आगे तीन आदमी चार-चार जोतों की मशालें लिये चल रहे थे। साथ में पंचवाद्यम् था। लोगों में पंचवाद्यम् सुनने का बहुत उत्साह था। बजानेवाले भी बहुत मगन होकर बजा रहे थे-विशेष रूप से शहनाईवाले।
रास्ते में कई घरों के आगे सजी हुई वेदिकाएँ बनी थीं। हर वेदिका के पास हाथियों को रोककर अक्षत, चन्दन आदि से उनकी पूजा की जाती। फिर बीच के हाथी को कुछ नैवेद्य दिया जाता और यात्रा आगे बढ़ जाती। ज्यों-ज्यों हाथी मन्दिर के पास पहुँच रहे थे, उनके आसपास भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में प्राय: सभी स्त्री-पुरुष नंगे पाँव थे। अधिकांश स्त्रियों ने बड़े ढंग से केशों में फूल सजा रखे थे। फूल सजाने की उनकी अलग-अलग शैलियाँ थीं। कुछ ने अपनी साड़ी के साथ फूलों की अल्पनाएँ बना रखी थीं। हाथी मन्दिर की सीमा के पास आ पहुँचे, तो लोगों का उत्साह दुगुना-तिगुना बढ़ गया। ज़ोर-शोर से पटाख़े चलाये जाने लगे और आतिशबाज़ी छोड़ी जाने लगी। आराट् का समय बहुत पास आ गया था।
आसपास सभी लोग किसी तरह मन्दिर के अन्दर पहुँचने के लिए संघर्ष कर रहे थे। भीड़ के उस दबाव में साँस लेना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उलटा संघर्ष करके मैं किसी तरह भीड़ से बाहर निकल आया। सड़क पर अब इक्का-दुक्का लोग ही थे। जो मेरी तरह भीड़ से बाहर निकल आये थे और एक तरफ़ खड़े होकर मन्दिर से छूटती आतिशबाज़ी के रंग देख रहे थे। कुछ मज़दूर थे जो अब उन वेदिकाओं को तोड़ रहे थे जिनमें थोड़ी देर पहले पूजा हुई थी। मैं भीड़ के बाहर आकर अभी दस क़दम भी नहीं चला था कि न जाने किस अँधेरे कोने से निकलकर एक व्यक्ति मेरे सामने आ खड़ा हुआ। "मिस्टर, तुम मुझे कुछ दे सकते हो?" उसने अँग्रेज़ी में कहा।
मैं थोड़ा अचकचाकर अपनी जगह पर रुक गया। उस आदमी को मैंने सिर से पाँव तक देखा। उसके सिर के बाल सड़ी हुई घास की तरह थे। कई दिनों की बढ़ी हुई खिचड़ी दाढ़ी एक खुरदुरे बुरुश-जैसी लग रही थी। फटी हुई कमीज़ की एक कन्नी नीचे लटक रही थी। बाँह पर फटा एक कम्बल था जिसे वह बच्चे की तरह छाती से चिपकाये था। नीचे उसने कुछ भी नहीं पहन रखा था।
"तुम्हें क्या चाहिए?" "मैंने उससे पूछा।
"इकन्नी, दुअन्नी या जो भी तुम दे सको। मैं एक बार से ज्यादा किसी से नहीं माँगता। उसे देना होता है, दे देता है। नहीं देना होता, नहीं देता।"
वह अच्छी अँग्रेज़ी बोल रहा था। मैंने सोचा कि कम-से-कम मैट्रिक तक तो वह पढ़ा ही होगा। "तुम भीख क्यों माँग रहे हो?" मैंने उससे कहा। "बातचीत से तो तुम ख़ासे पढ़े-लिखे जान पड़ते हो। अँग्रेज़ी इतनी अच्छी बोल लेते हो...।"
"मैं तीन भाषाएँ इतनी ही अच्छी बोल लेता हूँ," वह बोला। "अँगेज़ी, संस्कृत और तमिल।" फिर तमिल में कुछ कहकर उसने कालिदास का एक श्लोक पूरा दोहरा दिया-" रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्...।" श्लोक पूरा करते ही उतावले श्वर में बोला, "बताओ तुम मुझे कुछ दे सकते हो या नहीं?"
"देने में मुझे एतराज़ नहीं," मैंने कहा। "पर मैं जानना चाहता हूँ कि तुम पढ़े-लिखे होकर भी भीख क्यों माँग रहे हो?"
उसकी आँखों में एक चुभन आ गयी। "मैं बेकार हूँ और भूखा हूँ," वह वितृष्णा और कड़ुआहट के साथ बोला।
"फिर भी पढ़ा-लिखा आदमी कुछ-न-कुछ काम तो...।"
वह सहसा तिरस्कारपूर्ण स्वर में हँसा और आगे चल दिया। उस स्वर से मुझे लगा जैसे चलते-चलते उसने मेरे गाल पर थप्पड़ मार दिया हो।
आम्बलम् में बहुत-से पटाख़े एक साथ छूटने लगे। आकाश में आतिशबाज़ी के कई-कई रंग बिखर गये। इससे और पंचवाद्यम् के उत्तान स्वर से मुझे लगा कि आराट् का क्षण आ पहुँचा है।
मैंने एक बार अपने आसपास देख लिया। वह व्यक्ति अँधेरे में न जाने कहाँ गुम हो गया था।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान