यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
|
9 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
मैं मन में मुस्कराया कि बनिये की आँख कितनी दूर तक जाती है। अर्णाकुलम् के होटल में बैठा वह आदमी पेरियार लेक के साथसाथ वहाँ की किसी लडकी के सोन्दर्य का सौदा भी तय किये दे रहा था।
मैंने उसे नहीं बताया कि उस पूरी योजना पर खर्च करने के लिए सौ रुपया मेरे बजट में नहीं है। बहुत आभार के साथ उसे उसके सुझाव के लिए धन्यवाद देकर उठ खड़ा हुआ। कहा कि इस बार मेरे पास समय नहीं है-अगली बार आऊँगा, तो पेरियार लेक का कार्यक्रम अवश्य रखूँगा।
"खैर जब भी जाएँ जाइएगा मेरे प्रबन्ध से।" वह भी साथ उठता बोला। "मेरा कार्ड अपने पास रख लीजिए। पेरियार लेक पर मेरे-जैसी सुविधा आपको और कोई नहीं दे सकता। "
शाम को मैंने अलेप्पी जाने के लिए फेरी ले ली। बैक-वाटर्ज की यात्रा का यह मेरा पहला अनुभव था। कोचिन से अलेप्पी तक बैक-वाटर्ज का खुला विस्तार है जो बेम्बनाद लेक के नाम से जाना जाता है। बेम्बनाद में फ़ेरी की वह यात्रा एक रोमांचक अनुभव था। कहीं खुले पानी में इतनी बत्तख़ें तैरती मिलतीं कि लगता हम बत्तख़ों के देश में प्रवेश कर रहे हैं। सहसा फ़ेरी का साइरन बजता और बत्तखें पानी की सतह छोड़ पंख फड़फड़ाती आकाश में उड़ जातीं। फेरी के ऊपर उठते-गिरते पंखों की जाली-सी बुनी जाती। कुछ देर उड़ती रहने के बाद बत्तख़ें फिर पानी के किसी दूसरे हिस्से में उतर आतीं। तब दूर से देखकर लगता कि पानी पर रुई के फूलों का एक द्वीप तैर रहा है। पर कुछ ही देर में उधर से आती किसी फ़ेरी का साइरन बज उठता और रुई के फूलों का द्वीप फिर से फड़फड़ाते पंखों में बदलकर आकाश में उड़ जाता।
अलेप्पी पहुँचने से पहले सुबह हो गयी। अब हम झील में नहीं, पानी की सड़कों पर चल रहे थे-पानी की हाइवे, सबवे, दोराहे, चौराहे। यातायात के लिए बैकवाटर्ज़ को काटकर बनायी गयी उन नहरों की सतह पर सुबह की पहली किरणों के स्पर्श से सितारे-से झिलमिला रहे थे। फ़ेरी जहाँ किनारे के साथ-साथ छाया में चलती, वहाँ पानी में लचकते नारियलों के साये ऐसे लगते जैसे बड़े-बड़े अजगर, छटपटाते केंकड़ों को मुँह में लिये, धार से लड़ते हुए किलोल कर रहे हों। किनारे से थोड़ा हट आने पर पूरा आकाश पानी में प्रतिबिम्बित दिखाई देता और लगता कि नाव दो आकाशों के बीच से जाती धार में चल रही है। परन्तु फिर से धूप में आ पहुँचने पर नीचे का आकाश अदृश्य हो जाता और धार इकहरे आकाश के नीचे ठासे ज़मीन पर लौट आती।
शाम को अलेप्पी के समुद्र-तट पर तीन बच्चों के साथ मिलकर रेत के आम्बलम् बनाता रहा। जिस समय समुद्र-तट पर पहुँचा, वे बच्चे-एक लड़की, दो लड़के-पहले से वहाँ रेत के घरौंदे बना रहे थे। मैं कुछ देर रुककर उनके हाथों का कौशल देखता रहा, फिर पैरों के भार उनके पास बैठ गया। लड़की ने न जाने कैसे-शायद अपनी स्त्री-बुद्धि से-पहचान लिया कि मैं मलयालम-भाषी नहीं हूँ। वह अटक-अटककर वाक्य बनाती बोली, "आप क्या...हिन्दी-भाषी हैं?"
"हाँ," मैंने कहा। "तुम्हें हिन्दी आती है?"
"मैं...हम...हिन्दी में...," और रुककर उसने बस्ते से अपनी हिन्दी की किताब निकाल ली। उसमें देखकर बोली, "मैं...दूसरे फ़ार्म में...हिन्दी पढ़ती हूँ।"
|
- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान