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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

हिन्दी में हम लोगों की बातचीत ज्यादा नहीं चल सकी। उन लोगों को हिन्दी के थोड़े-से ही वाक्य बनाने आते थे। मगर इसके बावजूद जल्दी ही हममें घनिष्ठता हो गयी और वे मुझे रेत का आम्बलम् बनाना सिखाने लगे। जिस तरह उन्होंने चारों तरफ़ से रेत में सूराख़ करना शुरू किया, उससे मुझे लगा कि वे एक भट्ठी बनाने जा रहे हैं। मगर धीरे-धीरे वे सूराख़ आम्बलम् के अन्दर जाने के रास्ते बन गये, रास्तों के आगे गोपुरम् खड़े हो गये और बीच में देवस्थान की स्थापना हो गयी। एक लड़के ने अपनी जेब में लाल फूल भर रखे थे। वे उसने आम्बलम् में इधर-उधर बिखरा दिये। इससे शिल्प के अतिरिक्त आम्बलम् का वातावरण भी प्रस्तुत हो गया।

आम्बलम् बना चुकने पर उन्होंने मुझसे कहा कि अब मैं भी वैसा ही आम्बलम् बनाऊँ। मैंने बड़ी तत्परता से अपना निर्माण-कार्य शुरू किया। मगर जब मेरा आम्बलम् बनकर तैयार हुआ, तो वह आम्बलम् न लगकर भूतों का डेरा लग रहा था। बच्चे मेरे आम्बलम् पर काफ़ी देर हँसते रहे।

फिर हम सफ़ेद कबूतरों को पकड़ने के लिए उनका पीछा करने लगे। कबूतर कुछ ऐसे अविश्वासी थे कि हम अभी उनसे बीस क़दम दूर होते और वह सारे का सारा झुंड उड़कर पचास क़दम और आगे चला जाता। हम बहुत सावधानी से आगे बढ़ते हुए फिर उनसे पन्द्रह-बीस क़दम पर पहुँचते, तो वे फिर उड़कर बीच का फ़ासला उतना ही कर देते। हम शायद मील-भर उनके पीछे दौड़ते रहे। पर कबूतरों ने एक बार भी हमें अपने इतना पास नहीं पहुँचने दिया कि हम कपड़ा डालकर उनमें से किसी एक को पकड़ने की कोशिश कर सकते।

बच्चे चले गये, तो कुछ देर में थककर अकेला रेत पर लेटा रहा। कन्याकुमारी की ओर जाती समुद्र की तट-रेखा दूर तक दिखाई दे रही थी। समुद्र में पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा था। एक लहर मुझसे एक गज़ दूर तक की रेत को भिगो गयी। फिर एक और लहर मुझसे पाँच-छह इंच दूर तक आकर लौट गयी। उसके बाद अगली लहर उससे भी दो फ़ुट आगे तक चली आयी। मगर मैं तब तक वहाँ से उठकर वापस चल दिया था।

अलेप्पी से मैं कोइलून आ गया। कोइलून में थंकासरी समुद्र-तट के पास लाइट-हाउस है। मन हुआ कि देखा जाए उस मीनार पर चढ़कर समुद्र कैसा नज़र आता है। बड़ी मुश्किल से ऊपर जाने की इजाज़त मिली। ऊपर गुम्बज़ में पहुँचकर नीचे देखा, तो समुद्र समुद्र-जैसा न लगकर ऐसे लग रहा था जैसे रेशम की मुचड़ी हुई पतली सुरमई चादर यहाँ से वहाँ तक फैली हो। समुद्र में चलती नावें भी उस ऊँचाई से बहुत छोटी लग रही थीं-अपनी छायाओं और पीछे बनती सफ़ेद लकीरों-समेत उस कपड़े पर काढ़ी गयी आकृतियों-जैसी। दूसरी तरफ़ घने नारियलों के शिखर क्षितिज तक फैले थे। धूप और हवा मिलकर उनमें चमचमाती लहरें पैदा कर रही थीं। पानी और नारियल के झुंडों का वह एक-सा लहराव तट-रेखा के पास जाकर मिल गया था। तट-रेखा साँप की तरह बलखाती उत्तरोत्तर दक्षिण-पूर्व की ओर सिमटती गयी थी। वहाँ से उस रेखा को देखकर लगता था कि उसका छोर अब दूर नहीं है-थोड़ा और ऊँचे उठ सकें, तो वंह बिन्दु भी नज़र आ सकता है जहाँ जाकर वह समुद्र में खो जाती है।

 

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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