यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
मेरा आशा ध्यान उसकी बातों मे था, आधा समुद्र की तरफ़। लहरें उछल-उछलकर रेत पर सिर पटक रही थीं-एक आवेश और पागलपन के साथ। जैसे रेत ने कोई चीज़ अपने में ढक रखी थी जिसे उन्हें रेत की सतह तोड़कर हासिल कर लेना था।
"ग़रीबी और बेकारी इतनी है कि कई घरों की लड़कियों को मजबूर होकर पेशा करना पड़ता है,"-मेरा साथी कह रहा था। "दो वक़्त खाने के लिए मर्चिनी तो किसी तरह मिलनी ही चाहिए। सरकारी तौर पर वेश्यावृत्ति पर प्रतिबन्ध है, पर सरकारी हलक़े में ही उन लड़कियों की माँग सबसे ज्यादा है। वे रात को त्रिवेन्द्रम् के होटलों में ले जायी जाती हैं, या अपने घास और टाट के घरों में ही छिपे-छिपे यह व्यापार करती हैं। हम लोग आँखों से देखते हुए भी नहीं कह सकते। कहें, तो उन्हें खाना-दाना कहाँ से लाकर दें?"
अँधेरे के साथ-साथ समुद्र का पागलपन बढ़ता जा रहा था। अब लहरे आस-पास की पूरी रेत को घेर लेने की कोशिश में थीं। जब हमें लगा कि हमारे बैठने की जगह भी अब सुरक्षित नहीं है, तो हम उठकर रेस्ट-हाउस की तरफ़ चल दिये। पर वहाँ पहुँचने पर पता चला कि रेस्ट-हाउस में कोई भी कमरा या बिस्तर ख़ाली नहीं है। नौ बज रहे थे। लौटकर त्रिवेन्द्रम् जाने के लिए भी कोई बस नहीं मिल सकती थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करना चाहिए-बिना बिस्तर के सिवाय रेस्ट-हाउस के और कहाँ रात काटी जा सकती थी? मैंने चौकीदार की थोड़ी मिन्नत की, उसे लालच दिया, उससे बहस भी की-पर काम नहीं बना। आख़िर उस पर झल्लाकर मैं रेस्ट-हाउस से बाहर चला आया।
मेरा साथी भी मेरी वजह से परेशान था। पर उसके होठों पर हल्की मुस्कराहट भी थी। शायद इसलिए कि थोड़ी देर पहले तक मैं जितना गम्भीर और खामोश था, रेस्ट-हाउस में जगह न मिलने से उतना ही बिखर गया था। बीतनेवाली रात का पूरा संकट माथे पर लिये मैं कुछ देर उसके साथ दोराहे पर खड़ा रहा-जैसे कि बस्ती, रेस्टहाउस और बीच के अलावा वहाँ से किसी चौथी तरफ़ भी जाया जा सकता हो। मेरा साथी भी मन-ही-मन स्थिति का जायज़ा लेता रहा। फिर बोला, घबराइए नहीं, अभी कुछ-न-कुछ इन्तज़ाम हो जाएगा। मैं गाँव में पता करता हूँ-शायद वे लोग स्कूल का कोई कमरा रात-भर के लिए खोल दें।"
वह जिधर को चला, मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलता गया। गाँव वहाँ पास ही था। एक स्कूल की इमारत को छोड़कर बाक़ी सब कच्ची झोपड़ियाँ थीं। वहाँ पहुँचकर उसने कुछ लोगों से बात की, तो उन्होंने स्कूल का कमरा खोल देने में आपत्ति नहीं की। कमरा खुलने पर हमने वहाँ तीन बेंचें साथ-साथ जोड़ लीं। गाँव के घरों से एक चादर और तकिया भी ला दिया गया। इस तरह रात काटने की व्यवस्था हो गयी। मुझे भूख लगी थी। रेस्ट-हाउस के चौकीदार से लड़ आया था इसलिए खाना खाने वहाँ नहीं जाना चाहता था। मैंने कुछ संकोच के साथ अपने साथी से इसका जिक्र किया। उसने फिर जाकर गाँव के लोगों से बात की। पर पता चला कि खाने को उस समय वहाँ कुछ नहीं मिलेगा-सिर्फ़ किसी लड़के को भेजकर बस्ती से दूध मँगवाया जा सकता है।
एक लड़के को बस्ती भेजकर हम लोग काफ़ी देर स्कूल के बरामदे में बैठे बात करते रहे। जिस आदमी से स्कूल की चाबी ली गयी थी, वह भी अपने दामाद के साथ वहीं आ गया। दो-एक और लोग भी आ गये। उनमें अँग्रेज़ी बोलने-समझनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मेरा साथी एक तरह से इंटरप्रेटर का काम करता रहा। बातचीत का विषय वही था-भूख, बीमारी और बेरोज़गारी। दिल्ली की तरफ़ से आये व्यक्ति को वे अपने पूरे हालात बता देना चाहते थे। एक बुड्ढा बार-बार कह रहा था-गम्भीर भाव से-कि क्या दिल्ली की सरकार ऐसा कोई क़ानून नहीं बना सकती जिससे हर आदमी को दोनों वक़्त का खाना मिलना अनिवार्य हो जाए? "बैल चारा खाता है, तभी हल जोतता है," उसने कहा। "उसे चारा न मिले, तो वह काम नहीं कर सकता। हम लोग सरकार के बैल हैं। क्या सरकार का यह फ़र्ज़ नहीं कि हमें पूरा चारा दे?"
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान