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यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

यात्रियों की कितनी ही टोलियाँ उस दिशा मे जा रही थीं। मेरे आगे कुछ मिशनरी युवतियों मोक्ष की समस्या पर विचार करती चल रही थीं। मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा-चुपके से मोक्ष का कुछ रहस्य पा लेने के लिए। यूँ उनकी बातों से रहस्यमय आकर्षण उनके युवा शरीरों में उनके लबादों के हिलते हुए स्याह सफेद रंग बहुत आकर्षक लग रहे थे। मोक्ष का रहस्य अभी बीच में ही था कि हम लोग टीले पर पहुँच गये। यह वह 'सैंड हिल' थी जिसकी चर्चा मैं वहाँ पहुँचने के बाद से ही सुन रहा था। सैंड हिल पर बहुत से लोग थे। आठ-दस नवयुवतियों, छह-सात नवयुवक और दो-कतीन गाँधी टोपियोंवाले व्यक्ति। वे शायद सूर्यास्त देख रहे थे। गवर्नमेंट गेस्ट हाउस के बैरे उन्हे सूर्यास्त के समय की कॉफी पिला रहे थे। उन लोगो के वहाँ होने से सैंड हिल बहुत रंगीन हो उठी थी। कन्याकुमारी का सूर्यास्त देखने के लिए उन्होंने विशेष रुचि के साथ सुन्दर रंगों का रेशम पहना था। हवा समुद्र की तरह उस रेशम में भी लहरें पैदा कर रही थी। मिशनरी युवतियों वहाँ लगकर थकी-सी एक तरफ बैठ गयीं-उस पूरे कैनवस में एक तरफ छिटके हुए कुछ बिन्दुओं की तरह। उनसे कुछ दूर का एक रंगहीन बिन्दु, मैं, ज्यादा देर अपनी जगह स्थिर नहीं रह सका। सैंड हिल से सामने का पूरा विस्तार तो दिखाई दे रहा था, पर अरब सागर की तरफ एक और ऊँचा टीला था जो उधर के विस्तार को ओट में लिये था। सूर्यास्त पूरे विस्तार की पृष्ठभूमि में देखा जा सके इसके लिए मं, कुछ देर लैंड हिल पर रुका रहकर आगे उस टीले की तरफ चल दिया। पर रेत पर अपने अकेले कदमों को घसीटता वहाँ पहुँचा, तो देखा कि उससे आगे उससे भी ऊँचा एक और टीला है। जल्दी-जल्दी चलते हुए मैंने एक के बाद एक कई टीले पार किये। टाँगें थक रही थीं, पर मन थकने को तैयार नहीं था। हर अगले टीले पर पहुँचने पर लगता कि शायद अब एक ही टीला और है, उस पर पहुँचकर पश्चिमी क्षितिज का खुला विस्तार अवश्य नजर आ जाएगा। और सचमुच एक टीले पर पहुँचकर वह खुला विस्तार सामने फैला दिखाई दे गया-वहाँ से दूर तक रेत की लम्बी ढलान थी, जैसे वह टीले से समुद्र में उतरने का रास्ता हो। सूर्य तब पानी से थोड़ा ही ऊपर था। अपने प्रयत्न की सार्थकता से सन्तुष्ट होकर मैं टीले पर बैठ गया-ऐसे जैसे वह टीला संसार की सबसे ऊँची चोटी तो, और मैंने, सिर्फ मैंने, उस चोटी को पहली बार सर किया हो।

पीछे दायीं तरफ दूर-दूर हटकर उगे नारियलों के झुरमुट नजर आ रहे थे। गूँजती हुई तेज हवा से उनकी टहनियाँ ऊपर को उठ रही थीं। आकाश की तरफ उठकर हिलती हुई वे टहनियाँ ऐसे लग रही थीं जैसे उन्मुक्त रति क क्षणों में किन्हीं नग्न वन युवतियो की बाहें। पश्चिमी तट के साथ-साथ सखी पहाड़ियों की एक श्रृंखला दूर तक चली गयीं थी जो सामने फैली रेत के कारण बहुत रूखी, बीहड़ और वीरान लग रही थी। सूर्य पानी की सतह के पास पहुँच गया था। सुनहली किरणों ने पीली रेत को एक नया-सा रंग दे दिया था। उस रंग में रेत इस तरह चमक रही थी जैसे अभी-अभी उसका निर्माण करके उसे वहाँ उँडेला गया हो। मैंने उस रेत पर दूर तक बने अपने पैरों के निशानों को देखा। लगा जैसे रेत का कुँवारापन पहली बार उन निशानों से टूटा हो। इससे मन में एक सिहरन भी हुई, हल्की उदासी भी घिर आयी।

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    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

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