यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
मेरे साथियों का कहना था कि लौटते हुए नाव को घाट की तरफ से घुमाकर लाएँगे, हालाँकि मल्लाह उस तूफ़ान में उधर जाने के हक में नहीं थे। बहुत कहने पर मल्लाह किसी तरह राज़ी हो गये और नाव को घाट की तरफ़ ले चले। नाव विवेकानन्द चट्टान के ऊपर से घूमकर लहरों के थपेड़े खाती उस तरफ़ बढ़ने लगी। वह रास्ता सचमुच बहुत ख़तरनाक था-जिस रास्ते से हम आये थे, उससे कहीं ज्यादा। नाव इस तरह लहरों के ऊपर उठ जाती थी कि लगता था नीचे आने तक ज़रूर उलट जाएगी। फिर भी हम घाट के बहुत क़रीब पहुँच गये। ग्रेजुएट नवयुवक घाट से आगे की चट्टान की तरफ़ इशारा करके कह रहा था, "यहाँ आत्महत्याएँ बहुत होती हैं। अभी दो महीने पहले एक लड़की ने उस चट्टान से कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी।"
मैंने सरसरी तौर पर आश्चर्य प्रकट कर दिया। मेरा ध्यान उसकी बात में नहीं था। मैं आँखों से तय करने की कोशिश कर रहा था कि घाट और नाव के बीच अब कितना फ़ासला बाक़ी है।
"वह आत्महत्या करने के लिए ही यहाँ आयी थी," ग्रेजुएट नवयुवक कह रहा था। "सुना है उसे कुँवारेपन में ही बच्चा होनेवाला था। अर्णाकुलम् और त्रिवेन्द्रम् के बीच के किसी गाँव की थी वह। बाद में मुट्टम् के पास उसका शरीर लहरों ने किनारे पर निकाल दिया था।"
एक लहर ने नाव को इस तरह धकेल दिया कि मुश्किल से वह उलटते-उलटते बची। आगे तीन-चार चट्टानों के बीच एक भँवर पड़ रहा था। नाव अचानक एक तरफ से भँवर में दाख़िल हुई और दूसरी तरफ़ से निकल आयी। इससे पहले कि मल्लाह उसे सँभाल पाते, वह फिर उसी तरह भँवर में दाख़िल होकर घूम गयी। मुझे कुछ क्षणों के लिए भँवर और उससे घूमती नाव के सिवा और किसी चीज़ की चेतना नहीं रही। चेतना हुई जब भँवर में तीन-चार चक्कर खा लेने के बाद नाव किसी तरह उससे बाहर निकल आयी। यह अपने-आप या मल्लाहों की कोशिश से, मैं नहीं कह सकता। भँवर से कुछ दूर आ जाने पर ग्रेजुएट नवयुवक ने बताया कि हम उस चट्टान को लगभग छूकर आये हैं जिस पर से कूदकर उस नवयुवती ने कन्याकुमारी की साक्षी में आत्महत्या की थी।
पर मैंने तब तक उस चट्टान की तरफ़ ध्यान से नहीं देखा जब तक हम किनारे के बहुत पास नहीं पहुँच गये। यह भी वहाँ पहुँचकर जाना कि घाट की तरफ़ से आने का इरादा छोड़कर मल्लाह उसी रास्ते से नाव को वापस लाये हैं जिस रास्ते से पहले ले गये थे।
कन्याकुमारी के मन्दिर में पूजा की घंटियाँ बज रही थीं। भक्तों की एक मंडली अन्दर जाने से पहले मन्दिर की दीवार के पास रुककर उसे प्रणाम कर रही थी। सरकारी मेहमान गेस्ट-हाउस की तरफ़ लौट रहे थे। हमारी नाव और किनारे के बीच हल्की धूप में कई एक नावों के पाल और कडलकाकों के पंख एक-से चमक रहे थे। मैं अब भी आँखों से बीच की दूरी नाप रहा था और मन में बसों का टाइम-टेबल दोहरा रहा था। तीसरी बस नौ चालीस पर, चौथी...।1
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1. उसके बाद एक शाम और वहाँ रुककर कनानोर लौट गया। वहाँ जाकर अपने लिखे काग़ज़ मिल तो गये, पर तब तक चौकीदार ने उन्हें मोड़कर उनकी कॉपी बना ली थी। काग़ज़ों पर लिखाई एक ही तरफ़ थी, इसलिए उनके ख़ाली हिस्सों पर उसने अपना हिसाब लिखना शुरू कर दिया था। जब मैंने वह कॉपी उससे ली, तो उसे शायद उससे कम निराशा नहीं हुई जितनी कन्याकुमारी पहुँचकर अपना सूटकेस खोलने पर मुझे हुई थी।
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- प्रकाशकीय
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- दिशाहीन दिशा
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- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
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- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
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- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान