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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


मुचडू को जल्दी ही एक बार फिर लोगों ने एक मरा हुआ बंदर लेकर बैठे देखा। उसी तरह लाल कपड़े पर सजाए। इस बंदर को लोगों ने गली में मरते नहीं देखा था।

"ये कैसे मरा?" गली के एक लड़के ने पूछा।

"गिरकर।"

"कहां गिरा था?"

"वहां। अमानीगंज में।"

"अबे, ये तेरे बदन को क्या हुआ? क्या बंदर के साथ तू भी गिरा था?"

मुचडू नाराज होकर चुप हो गया। उसके कंधे और पीठ पर खरोंचें और चोटें थीं। उसके लाल कपड़े पर इस बार और ज्यादा पैसे इकट्ठे हुए, क्योंकि यह मंगलवार का दिन था, जब लोग हनुमान की पूजा करते हैं। अगले रोज बाकायदा जुलूस के साथ ले जाकर इस बंदर को भी जमीन में दबा दिया गया। मुचडू फिर अपने उन्हीं कामों में लग गया-हलवाई के यहां भट्ठी तैयार करना और कंप्यूटर की दुम से बंधे चूहे की मदद से आकृति तैयार करना। इसके अलावा एक और काम भी उसका था। वह खाली वक्त में अतीक के बंदर को छेड़ता था और इस तरह उसी को नहीं दूसरे लफंगों को भी मजा आता था। लेकिन पता नहीं कैसे मुचडू के इसी एक काम में गड़बड़ी पैदा हो गई। अतीक का बंदर उससे चिढ़ने लगा। बहुत ज्यादा ही।

उसके चिढ़ने पर मुचडू को खीझ हुई। एक दिन उसने सोचा कि वह उस बंदर को एक थप्पड़ रसीद करे। नजदीक जाते ही वह नन्हा बंदर जोर से चीखा और उछला। फिर उछल-उछलकर चीखता ही गया।

मुचडू के नजदीक जाने पर बंदर के इस तरह उछलने और चीखने पर औरों का भी ध्यान गया।

मुचड़ू अतीक के लिए किसी ग्राहक से चेक लेने गया था। ग्राहक ने चेक तो नहीं ही दिया, परचे पर बनाई आकृतियों में भी जमकर नुक्स निकाले। आकृतियां मुचडू ने ही बनाई थीं ओर बुरी तो नहीं ही थीं। वह खासा ही खीझा हुआ था। अतीक के दुकान के पास पहुंचने पर उसने देखा, नल से बंधा बंदर बुरी तरह चीखता हुआ उछले जा रहा था।

अतीक की दुकान के सामने वाले मकान के चबूतरे पर पान-मसाले के छोटे-छोटे पैकेटों की लड़ियों और सिगरेट-बीड़ी की एक नन्ही-सी दुकान थी। यह दुकान गंगाराम बढ़ई के मरने के बाद उसकी बीवी ने खोल ली थी। दुकान पर बहुत छोटे बच्चों की पसंद की भी कुछ सस्ती चींजे मिलती थीं। चबूतरे की उस दुकान के आसपास खाली चबूतरे पर गली के कई जवान लड़के आ बैठते थे। चूंकि उनके पास बहत ज्यादा खाली वक्त होता था, इसलिए एक-दूसरे को गालियां देने के अलावा वे अतीक के बंदर से छेडखानियां किया करते थे। उन्हें भी मुचडू को लेकर बंदर के इस बदले तेवर पर ताज्जुब हुआ।

“अबे, साले ने किसी बंदरिया को छेड़ा होगा।" उनमें से एक ने कहा और इस बेतुके मजाक पर सभी हंसे।

आज मुचडू ने बंदर को बिल्कुल नहीं छेड़ा था, बल्कि उसकी तरफ देखे बगैर दुकान पर आकर कंप्यूटर के सामने बैठ गया था। वह बंदर उसकी उपेक्षा के बावजूद उसी तरह चीखा था।

“ताज्जुब ही है।" अतीक आधी जली सिगरेट जेब से निकालकर सुलगाता हुआ बोला, "आखिर तूने इसके साथ किया क्या है?"

"मैं किसी दिन इसकी गर्दन मरोड़ दूंगा!" चिढ़कर मुचडू ने कहा।

"हां। उसकी गर्दन मरोड़ दे, फिर लाल कपड़े पर उसकी लाश लेकर बैठ जा।" अतीक ने व्यंग्य किया।

अतीक के इस व्यंग्य पर मुचडू को जैसे कंपकंपी छूट गई। उसने कंप्यूटर के चूहे पर से हाथ हटा लिया और उठ खड़ा हुआ।

"अबे, कया हुआ?"

मुचडू ने अतीक को जवाब नहीं दिया। दुकान से नीचे उतरा और एक तरफ चल दिया।

"अबे, हद हो गई। साला बिना कोई जवाब दिए ही सरक लिया!"

"अतीक मियां! इस मुचड़ के बच्चे को भी इसी बंदर के साथ बैठा दो। अच्छा तमाशा रहेगा।" लड़के अपने इस भोंड़े-से मजाक पर फिर हंसने लगे। अतीक ने बड़बड़ाते हुए सिगरेट बुझा दी और खुद कंप्यूटर पर आ बैठा। पर्दे के बीच गणेश की एक तस्वीर थी और कोने पर एक तिकोना झंडा था। कंप्यूटर पर एक धार्मिक उत्सव का परचा तैयार हो रहा था। परचे के कोने में झंडा बनना था और झंडे के बीच गणेश की तस्वीर। मुचडू ने गणेश के पैर के पास एक चूहा भी बना दिया था।

अतीक खीझ गया, "इस गधे को देखो। साली अपनी तस्वीर भी बना दी है।"

लड़के उत्सुक हुए, “अपनी तस्वीर? कंप्यूटर में? साले कंप्यूटर को कैमरा समझ लिया!"

“अबे, चूहा बनाया है।" अतीक खीझकर बोला. “परचे पर एक इंच का तो झंडा होगा। उसके बीच नाखून के बराबर गणेश जी की तस्वीर होगी। चूहा तो साला राई बराबर भी नहीं होगा। छपने पर दिखाई देगा? साला कारीगरी दिखाएगा, अकल धेले की नहीं।"

अतीक ने चूहा कंप्यूटर के परदे से हटाया और झंडे के बीच गणेश की तस्वीर बैठाने लगा। मगर जल्दी ही उसका ध्यान फिर मुचडू की तरफ चला गया। उसे लगा, मुचडू से चाय मंगाना और पीना जरूरी है। या चाय न भी सही, मुचडू गया कहां? वह कंप्यूटर छोड़कर चबूतरे पर आ खड़ा हुआ। मुचडू का कहीं पता नहीं था।

दरअसल अपने गुस्से के बावजूद गली के आगे की सड़क पर थोड़ा-सा आगे जाकर ही वह सहज हो गया। किसी की लाश जा रही थी। जैसी सज-धज वाले लोग साथ थे, उन्हें देखकर मुचडू समझ गया कि शवयात्रा किसी मालदार की है। ऐसी शवयात्रा के साथ आम तौर पर वह काफी देर तक चलता था, क्योंकि लाश पर उसके संबंधी लोग बताशे और मखानों के साथ पैसे भी उछालते चलते थे। आज जिस शवयात्रा से वह आकर्षित हुआ था उसमें भी मखाने और बताशों के साथ फूल उछाले जा रहे थे, पर उनके साथ सिक्के नहीं थे।

यह कैसी लाश है? किसकी है? उछाले गए सिक्के बच्चे भी उठाते थे, पर इस काम में मुचडू ज्यादा सफल होता था, क्योंकि वह बड़ा था, बच्चों को धकेल भी सकता था। एतराज कोई इसलिए नहीं करता था कि वह भी उन बच्चों जैसा ही फटेहाल था। पर इस लाश पर सिक्के नहीं उछाले जा रहे थे। ऐसी मृत्य से उसे क्या सरोकार हो सकता था भला? वह ठिठका, फिर मुड़कर उल्टी दिशा में बढ़ता चला गया।

जब वह गली की तरफ लौटा, उस वक्त खासी रात बीत चुकी थी। बहुत रात तक जागने वाली औरतें भी सो गई थीं या खामोश थीं। उस सन्नाटे में पहली बार उसने पतली मरी-मरी आवाज में गाया जाता अपनी मां का वह गाना सुना-‘पीठ देखो रे माई! मेरी पीठ देखो, जैसे धोबी का पाट इस तरह मारा है...

मुचडू के शरीर पर उस दिन जो चोटें आई थीं और जिनके बारे में उसने किसी से कुछ नहीं कहा था, वे चोटें कुछ इस तरह चिटखने लगीं जैसे उनकी पपड़ियों के नीचे कुछ बढ़ने या फूलने लग गया हो, जैसे चोटों के फेफड़ों में सांस भर रही हो। उनमें जलन होने लगी। जलन सिर्फ वहीं नहीं, शरीर के अंदर तक।

एक बार मुचडू ने गली के आरपार देखा। गली में ज्यादा अंधेरा नहीं था। अतीक के बंदर की नींद टूट गई थी और वह बहुत खामोशी से आंखें फाड़कर मुचडू को देख रहा था। मुचडू ने भी उसे देखा। बंदर कुछ ज्यादा सावधान हो गया। मुचडू के जबड़े भिंच गए। वह स्थिर गति से आगे बढ़ता रहा। करीब आते ही बंदर चीखा ओर उछला। मचडू बेहद फुर्ती से बंदर की जंजीर की तरफ झपटा। बंदर चीख-चीखकर उछलने लगा।

बंद दरवाजों के अंदर से अतीक की झल्लाई उनींदी आवाज आई, “अबे, क्या है? साला कुत्तों को देखकर नौटंकी कर रहा है।"

बाकी कोई कुछ नहीं बोला। कोई बाहर भी नहीं आया। मचड़ ने बंदर की जंजीर खोल ली और उसे उसी तरह घसीटता हुआ तेजी से अपने घर की सीढ़ियां चढ़ गया। ऊपर की मंजिल पर टिन के सायबान के नीचे के फर्श पर बने सूराख के पास बैठी उसकी मां उसी तरह गाती रही-'मेरी पीठ देखो रे माई!'

चीखते-उछलते बंदर को जंजीर से लगभग टांगे हुए मुचडू किनारे की दीवार पर पंजा फंसाकर टिन के ऊपर चढ़ा और ऊपर की बिना मुंडेर की छत पर चला गया। अगली दो छतें लांघने में उसे कठिनाई नहीं हुई। और अब वह ठीक वहां पहुंच गया था, जहां बिजली के खंभे का वह सिरा था जिसमें मकड़ी के जाले की तरह सैकड़ों तार उलझे हुए थे।

अब सिर्फ उसे बंदर के गले से जंजीर खोलनी थी। बंदर ने सहसा चीखना बंद कर दिया। मुचडू को संतोष हुआ कि बंदर शायद थक गया है। उसकी जंजीरं खोलकर उसे खंभे के तारों की उस गुंजलक पर उछाल भर देना है। बाकी काम खुद हो जाएगा। उसे सुर्ख कपड़े पर पड़ी बंदर की लाश और सिक्के दिखाई दिए। ठीक उसी क्षण उस बंदर ने उछाल मारी और उसके कंधे के पास चिपट गया। दांतों और नाखूनों से हुए उस हमले से बचने के लिए उसने अपना सिर पीछे खींचा और इसके बाद जो कुछ भी मुचडू में पिछले कुछ घंटों में पैदा हुआ था, उसे लिए-दिए वह तारों की उसी गुंजलक पर गिरा। काफी देर तक बिजली के तार पटाखों की-सी आवाज करके आतिशबाजी जैसी छोड़ते रहे। हाथ में फंसी जंजीर के साथ बंदर लिए हुए मुचडू जैसे एक क्षण के कुछ हिस्से तक उन तारों की आतिशबाजी में तैरा, फिर चीखता हुआ गली में जा गिरा। गली में कुछ देर वैसे का वैसा ही सन्नाटा बना रहा, फिर भीड़ एक साथ चारों तरफ से इकट्ठी होने लगी।

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