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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


एक-दूसरे को बगैर बताए एकाएक कई लोग अगले दिन गांव से गायब हुए और जब वापस लौटे तब पंडित राधेश्याम को उससे भी ज्यादा गंदी गालियां दे रहे थे क्योंकि परदे पर उन्होंने जो देखा था उसमें बिस्तर पर जाने से पहले नायक और नायिका कपड़े उतारते जरूर दीखे लेकिन नायक-नायिका नहीं दीखें। उनके उतारे कपड़ों का ढेर बन गया तो गांववालों ने उत्सुकता से सांस रोक ली। वे समझे कि अब बिस्तर पर दोनों दिखाई देंगे लेकिन परदे पर तुरंत अंधेरा हो गया और जब उजाला हुआ तो लोग नायिका के बाप से शिकायत करने जाते दीखे।

ऐसे माहौल में बेहतरीन मनोरंजन किशन बाबू दे सकते थे-"अरे भई सुना? नहीं सुना? छोड़ो, तब तुम्हें बताने से क्या फायदा!"

किशन बाबू के इस संवाद को सुननेवाला उत्सुक से ज्यादा शर्मिंदा होता था क्योंकि किशन बाबू तुरंत यह भी कह देते थे, “सारा गांव जानता है, तुम्हीं कैसे अनजान बने हो? मुझे तो स्कूल को देर हो रही है।"

यह संवाद बोलने के बाद किशन बाबू स्कूल की तरफ चल भी पड़ते थे। ऐसी हालत में वह वाक्य सुननेवाला इस आशंका से लगभग बौखला जाता था कि किसी बेहद रोचक प्रसंग की हिस्सेदारी से वह वंचित रह जाएगा। तब वह एकाएक प्रार्थी हो जाता था बल्कि चापलूस। कुतूहल से चिकनाई आंखों से इधर-उधर ताकता हुआ किशन वाबू से सट जाता था। “कसम से डाकखाना बाबू, इधर हम ऐसे फंसे रहे कि पूछो मत।"

"तो फिर फंसे रहो बच्चू! मैं तो प्रपंच में पड़ता नहीं। सारा गांव जानता है नंदू की घरवाली का किस्सा..."

इसके बाद किशन बाबू वहां ठहरते नहीं थे। धीरे-धीरे अगले दिन तक गांव का हर मर्द छोटा-मोटा किशन बाबू बन जाता था। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि नंद की घरवाली के कांड का प्रथम उद्घाटनकर्ता वही है। यह सिद्ध करने में वह किस्से को अपनी कल्पना के पूरे कौशल से गढ़ने की कोशिश करता था। इस किस्से को सुननेवाला इसे अपना मौलिक उद्घाटन मनवाने के लिए अगले आदमी को अपनी तरफ से खासा नमक-मिर्च लगाकर सुनाता था। इस तरह वह किस्सा जो भी रहा हो, कई रोज तक तरह-तरह के रूप लेता हुआ लगभग समूचे गांव का मनोरंजन बना रहता था।

इस मनोरंजन में लोगों का मन रमाने की खासी ही शक्ति थी लेकिन यही गांव की गड़बड़ी की जड़ भी था। गड़बड़ी कहीं राधे की साली की हो, नाम रघुनन्दन की बहू का चल पड़ता था और इस तरह जो झगड़ा उठ खड़ा होता था वह अक्सर और ज्यादा रोचक होता था। मनोरंजन का चक्र पूरा होते न होते मालूम होता था कि रघुनंदन ने मंसा को पीट दिया और मंसा नंदू को गाली दे आया या नंदू ने राधे पर ईंट फेंक मारी। यह झगड़ा जल्दी शांत नहीं होता था क्योंकि झगड़ा ठंडा जल्दी पड़ जाए तो उसमें भी मनोरंजन भाव का ही व्याघात होता था। जब नंदू राधे को ईंट मारता था तो राधे गोपाल की चाची का भेद खोल दोत था और रघुनंदन से पिटनेवाला मंसा टिंगू के घर का परदा उघाड़ देता था। इस तरह जितनी देर ये झगड़े चलते थे मनोरंजन रस के परिपाक की संभावनाएं बढ़ती ही जाती थीं। इसीलिए. लोग एक तरफ तो दो आदमियों को समझा-बुझाकर चुप कराते थे पर कोई ऐसा सूत्र भी छोड़ देते थे जिससे अगले चार के बीच शाम तक दुबारा फसाद खड़ा हो जाए।

उस गांव में बेहद लापरवाही लेकिन रुचि के साथ खेले जा रहे इस खेल में कुछ ऐसी रहस्यजनक शक्ति भी थी कि लगता था यह खेल खुद गांव को खेल रहा है, डोरी से बंधी उस गरारी की तरह जो धागे से खुलती हुई जितनी तेजी से नीचे उतरती है उतनी ही फुर्ती से धागे को लपेटती हुई दुबारा ऊपर चढ़ जाती है।

गांव का दिन अपनी तमाम बदहाली के बावजूद उतना बुरा नहीं होता है; बल्कि उसमें कुछ ऐसा होता है जो आदमी को अपनी तरफ खींचता है, अपने से जोड़ता है चाहे वह तालाब में सड़ने के इंतजार में छोड़े सन के पौधों का गट्ठर हो या पानी मांगता हुआ तंबाकू का पौधा। लेकिन रात वैसी नहीं होती है। गांव की रात में एक अनाम दहशत होती है। अंधेरे के साथ खौफ के सख्त रोएं आदमी से ऐसे सटने लगते हैं जैसे कोई आदमखोर सूंघने की कोशिश कर रहा हो। ऐसे में आदमी या तो आग के इर्द-गिर्द आदिम कबीले की तरह वक्त गुजारता है या मिट्टी के घरों की गुफाओं में सिमट जाता है।

गांव के दिन और रात का यही फर्क इस मनोरंजक खेल के दो पहलुओं के बीच भी था-एक पहलू लोगों की रुचि का और दूसरा उससे उपजनेवाली सामाजिक उलझन का। बड़े अनजाने और अनचाहे ही इस दूसरे पहलू की गांठें बढ़ती गई थीं। कभी-कभी वे गांठें इतनी सख्त हो जाती थीं कि किसी असाध्य रसौली की तरह बिना कुछ जानें लिए मानती नहीं थी।

इस गांव नौबन में पिछले कुछ अरसे से ऐसी ही कुछ रसौलियों ने जबर्दस्त दर्द और तनाव पैदा कर दिया था। रिश्तों की ये रसौलियां कब मारक हो उठीं यह कोई नहीं जानता पर पिछले साल जबर्दस्त सर्दियों में चींटियों से लिपटी नन्हे की लाश के साथ खासी गड़बड़ी शुरू हो गई। और उन रसौलियों की सड़न रज्जन और नत्थू से कैसे जुड़ गई इसका भविष्य भी उतना ही अतर्कित है जितना नन्हे की लाश से पैदा हुई गड़बड़ी का।

किसी ने ऐसा कहा कि नन्हे के मारे जाने के पीछे होरीलाल की छोटी बहन का कोई किस्सा है। होरीलाल ने कुछ नहीं कहा पर उसके छोटे भाई ने संतू को लाठियों से इसलिए बुरी तरह पीट डाला कि उसका खयाल था यह बात संतु ने ही उड़ाई है।

संतू को दुबारा होश नहीं आया। उसे चूंकि रात के अंधेरे में होरीलाल के भाई ने अकेले घेरकर मारा था इसलिए हमलावर या हमलावरों का पता नहीं चला। लेकिन एक बात बहुत तेजी से फैली या फैलाई गई। किसी ने कहा, संतू डकैत था और चूंकि वह डकैत था इसलिए मदनलाल के गिरोहवाले उसकी मौत का बदला लेंगे।

मुमकिन है यह बात किशन बाबू ने ही फैला दी हो लेकिन इससे और ज्यादा मामला उलझ गया कि मदनलाल बरसातीराम का दुश्मन था। जरूर मदनलाल अपने गिरोह के साथ लाला- बरसातीराम पर चढ़ाई करेगा।

इतना कुछ घट जाने के बाद नत्थू और रज्जन की भूमिका शुरू हुई। सारे घटनाक्रम से वे इस सहता से कुछ जुड़ गए जैसे वे हमेशा से उस सबका हिस्सा बनने का हक पाकर आए हों। वे जुड़े हुए न दीखते तो जरूर अनहोनी बात होती।

नत्थू और रज्जन नौबन के खास चरित्र थे। उनकी उस विशिष्टता को लगभग हर कोई जानता था लेकिन वह जानकारी भी उसी मनोरंजन का हिस्सा थी जिसमें स्त्री-पुरुष-संबंध थे।

वे दोनों ही मुखबिर थे। दोनों सगे भाई थे लेकिन आपस में गहरी दुश्मनी थी। रज्जन डकैतों का मुखबिर था और नत्थू पुलिस था। ऐसा लोगों का खयाल था। मगर नत्थू कुछ ज्यादा चालाक था। वह डकैतों के लिए भी मुखबिरी करता था। डकैतों के कहीं मौजूद होने की सूचना पुलिस को देने के बाद वह उतनी ही फर्ती से डकैतों को यह खबर भी पहुंचा देता था कि पुलिस को उनके बारे में खबर हो गई है। चूंकि अक्सर दोनों ही बातें सच होती थीं इसलिए नत्थू इस काम में कहीं ज्यादा सफल था।

शुरू में यह काम बहुत डराता था, खास तौर से नत्थू को। रज्जन भी शुरू में डरा था। वह जानता था कि जिस दुनिया में वह रह रहा था वहां का बेहतरीन मनोरंजन कानाफूसी, खतरनाक हद तक भेद खोलनेवाला यंत्र था। बहुत जल्दी ही हर किसी को मालूम हो जाता था कि नौबन में कोई अकेला व्यक्ति चुपचाप कहां, क्या कर आया। पहली बार मीरपूर की शादी में आए सोने के जेवरात की खबर रज्जन ने जब मदनलाल को पहुंचाई तो वापस लौटते समय डरा। लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि चूंकि वह डकैत मदनलाल से संबंधित माना जा रहा है इसलिए लोग उससे भी लगभग वैसा ही खौफ खाने लगे हैं जैसा डर वे खुद मदनलाल से महसूस करते थे।

नत्थू ने पुलिस की मुखबिरी कुछ हद तक रज्जन से चिढ़ के कारण की थी।

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