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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


थाने पर यह खबर पहुंचते ही नत्थू छोड़ दिया गया। अब वह पुलिस का विश्वसनीय सूत्र बन चुका था।

मारे जानेवालों में से चूंकि एक पुलिस का मुंशी खुद था इसलिए जल्दी ही पुलिस ने दुबारा नत्थू को खोज लिया।

यहां से इस खेल ने एक ऐसा मोड़ ले लिया जो कहीं रज्जन और नत्थू दोनों की जिंदगी से जुड़ता था। हालांकि इस काम में आमदनी बहुत अच्छी न थी लेकिन कुछ काम तो चल ही जाता था। सबसे बड़ी बात थी एक खास किस्म की व्यस्तता का एहसास।

मुखबिरी के इस धंधे की शुरुआत जहां नत्थू और रज्जन की आपसी दुश्मनी से हुई थी वहां इसमें विकास की प्रक्रिया दोनों को धीरे-धीरे एक-दूसरे के इस तरह
करीब लाने लगी कि वे काफी हद तक एक-दूसरे के पूरक या सहयोगी हो गए। नत्थू को पुलिस तक पहुंचाई जानेवाली सूचनाएं अक्सर रज्जन से ही मिलने लगीं क्योंकि पुलिस कार्यवाही के बारे में डकैतों तक पहुंचानेवाली खबरें रज्जन नत्थू से लेने लगा।

यह भी मजे की बात थी कि इस बेहद मशीनी अंदाज में होनेवाली मुखबिरी से मुखबिर तो खुश थे ही, पुलिस और डकैत भी प्रसन्न थे। दरअसल इन मुखबिरों के कारण दोनों की आसानियां बढ़ गई थीं। पुलिस या डाकुओं में से दोनों को पता लग जाता था कि कौन, कहां, कब और क्या करेगा। डकैत आते थे और इत्मीनान से लूटकर चले जाते थे। फिर पुलिस आती थी। वह उन अड्डों पर छापा मारती थी जहां से डकैत पहले ही भाग चुके होते थे। पुलिस शराब की खाली बोतलें और अधजली सिगरेटें सील करके लौट जाती थी। अभियान दोनों में से किसी के असफल नही होते थे।

मगर इस बीच एक भारी गड़बड़ी हो गई। एक मंत्री का भाई अपने परिवार के साथ मोटर पर रात के वक्त शिकार से लौट रहा था। मोटर रोककर डाकुओं ने उन्हें मार दिया और जो मिला वह लूट ले गए। यह मामला बहत गंभीर था और पुलिस और डाकुओं को ही नहीं, नत्थू और रज्जन को भी पता लग गया था कि यह मामला आसान नहीं है।

नत्थू पोटली में बंधी अरहर की फलियां बीवी को सौंप देना चाहता था और अगली किसी कार्यवाही से पहले ही गांव से बाहर कहीं गायब हो जाना चाहता था। उसने मकान के पीछेवाले दरवाजे पर हाथ रखना ही चाहा था कि उसे लगा अंदर कोई है।

क्या अंदर पुलिसवाले हैं?

थोड़ी देर अपने-आपको संयत करके उसने दरवाजे की संधि से अंदर झांकने का फैसला किया। यह काम आसान न था। उसे मालूम था कि पिछला दरवाजा बेहद आवाज करेगा, जरा-सा छूते ही। आवाजें उसे साफ सुनाई दे रही थीं। वे कुछ अजीब तरह की थीं।

आखिर उसने बहुत सावधानी से दरवाजे की दरार से अंदर की ओर झांका। वर्दियां तो वही थीं। निश्चय ही वही जो पुलिसवाले पहनते हैं लेकिन मदनलाल को पहचानने में उसे भूल नहीं हुई। अजब बात थी कि वर्दियां दोनों की एक ही होती थीं फिर मुखबिरी इतनी अलग क्यों थी?

उसे ज्यादा सोचने का वक्त नहीं मिला क्योंकि थोड़ा-सा किनारे पड़ी चारपाई पर जो कुछ हो रहा था वह देखकर नत्थू एकाएक सूखकर बदरंग हो गया।

फर्श पर मदनलाल अपने कुछ साथियों के साथ बैठा हुआ मुंह भर-भर कर कुछ खा रहा था और चारपाई पर बिना किसी कपड़े के उसकी बीवी इस तरह चित लेटी थी जैसे बरसात के मौसम में मनाए जाने वाले त्योहार पर चौराहे पर डालकर छड़ियों से पीटी, फटी गुड़िया।

वह दरवाजे से हट गया। अंदर की आवाजें बहुत जोर से उसके दिमाग में बज रही थीं। झुककर उसने चुपचाप वे फलियां वहीं धूप में रख दीं और लौट चला।

इस बार खेल नहीं, सच। वे लोग यहां हैं और अभी रहेंगे। मदनलाल का पूरा गिरोह। भले ही पुलिस आए और उसकी बीवी को उस बेहूदा हालत में देखकर मजे भी ले पर पुलिस को आना होगा।

कतराने के बजाय वह सीधे टीले की तरफ चल पड़ा।

रज्जन के चीखने की आवाज फिर आने लगी थी लेकिन उसी के साथ किशन बाबू ने बच्चों को महात्मा गांधीवाला पाठ जोर-जोर से पढ़ाना शुरू कर दिया था। आज बहुत दिन बाद वे इस तरह पढ़ा रहे थे, शायद रज्जन की चीखों की तरफ से ध्यान हटाने के लिए।

बुखार की तरह जमीन और आसमान को कंपाती गर्मी में जब नत्थू टीले के दूसरी ओर उतरा तो पलकों पर बैठ गई लू के धुंधलके में उसने रज्जन को बाद में देखा, पुलिस ने उसे पहले देखा।

रज्जन बिना किसी कपड़े के धूप में जमीन पर लेटा था या लोट रहा था और एक सिपाही लाठी का सिरा उसकी जांघों के बीच रह-रहकर कोंच रहा था जैसे पानी की तली नाप रहा हो।

नत्थू पर नजर पड़ते ही वहां वह सब थम गया। नत्थू कुछ और तेज कदम बढ़ाकर उन लोगों तक गया और निगाह मिलाए बगैर धीरे से एक सिपाही के कान में बोला, “मदनलाल पूरे गिरोह के साथ मेरे घर में छुपा है, जल्दी करिए हुजूर...।"

"ये हरामी क्यों आया?" दारोगा ने दूर से ही पूछा।

सिपाही ने फुर्ती से पास जाकर दारोगा को वह बात बताई। दारोगा थोड़ी देर इस तरह गुमसुम हो गया जैसे वह किसी बहुत जटिल अभियान की तैयारी करने लगा हो। फिर सहसा उठ पड़ा। उसने चिल्लाकर जीपवाले को पुकारा और सिपाहियों से बोला, "इस मुल्जिम को जीप में डालो। और इसे भी बैठा लो। जल्दी करो।" उसने नत्थू की तरफ इशारा किया।

नत्थू को और किसी वक्त यह ठीक नहीं लगता, पर अभी जो कुछ उसने देखा था उसके बाद खुद पुलिस की जीप में बैठकर निहत्थे ही सही, गिरोह तक जाने में संकोच नहीं रह गया था। वह खुद ही जीप के पिछले भाग में बैठ गया।

रज्जन को सीटों के बीच में डालकर सिपाही बहत फर्ती से जीप में आ बैठे। दारोगा के बैठते ही जीप रवाना हो गई।

"चक्कर ले लो। उधर बबूल के जंगल की तरफ से निकलो।"

जीप गांव के पीछे की ओर गई जरूर लेकिन नौबन की तरफ मुड़ी नहीं बल्कि थोड़ी दूर ही निकल गई। नत्थू ने इस बात पर ध्यान दिया पर उसने सोचा कि शायद पुलिस अपने ढंग से डाकुओं को घेरने की कोशिश कर रही है।

तभी दारोगा बोला, "रोको।"

जीप रुक गई। उसने रज्जन की पसली पर जूते की नोक चुभाकर कहा, “इसे कहो उतरे। न उतरे तो नीचे फेंक दो।"

इस तरह का आदमी शायद ज्यादा ही मजबूत हो जाता होगा, क्योंकि सिपाहियों की थोड़ी-सी कोशिश से रज्जन न सिर्फ नीचे आ गया बल्कि लड़खड़ाता हुआ खड़ा भी हो गया।

"तू भी नीचे उतर।" दारोगा ने नत्थू को डांटा। डांट से थोड़ा शर्मिंदा होकर नत्थू भी नीचे उतर आया।

उनके नीचे उतरते ही दारोगा चीखा, "भाग, फौरन भाग!"

नत्थू समझ नहीं पाया।

"अबे, तुम लोग भागते हो या नहीं! लगाऊं मार?" दारोगा फिर चीखा।

नत्थू पहले तो पीछे हटा फिर धीमी चाल से भागने लगा। अब चंकि उसकी पीठ जीप की तरफ थी इसलिए वह कुछ देख नहीं सका सिर्फ उसे रज्जन की ऐसी कातर आवाज सुन पड़ी जैसे वह भीख मांग रहा हो। उसे देखने के लिए सिर घुमाने से पहले ही उसने कान फाड़ देने वाला धमाका सुना और तभी उसे जैसे किसी ने पीछे से भयानक धक्का दिया। सामने सीने के पास मांस का एक बड़ा सा लोथड़ा लटक आया। वह उस लोथड़े के साथ ही उछल कर सामने गिरा। परिंदे उड़कर जबर्दस्त शोर करने लगे।

जीप पीछे हटी और वापस चली गई। दोनों लाशें वहीं पड़ी रहीं। जाने कब पुलिसवाले उनके पास एक जंग लगा तमंचा फेंक गए थे। परिंदे थोड़ी देर में फिर शांत हो गए पर उस उदास पक्षी की आवाज सुनाई देती रही-उठो पुत्तू पूर-पूर-पूर।

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