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कठगुलाब

मृदुला गर्ग

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 740
आईएसबीएन :9789357751704

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एक बड़ा और कड़े बौद्धिक अनुशासन में रचा गया उपन्यास ‘कठगुलाब’...

Kathgulab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत है प्रतिष्ठित हिन्दी कथाकार मृदुला गर्ग का नवीनतम उपन्यास ‘कठगुलाब’। यह सत्य है कि नितांत वैयक्तिक कुछ नहीं होता और न नितांत सामाजिक। दरअसल व्यक्ति के माध्यम से समाज को और समाज के माध्यम से व्यक्ति को परखना होता है। कहना न होगा कि यह व्यक्ति जब स्त्री होती है तो अंतःसंबंध और अधिक जटिल एवं दिलचस्प हो उठते हैं। ‘कठगुलाब’ उपन्यास ऐसी ही अनेक औरतों की जिंदगी का जायजा लेता हुआ जीवन के वे तमाम संगत-असंगत तत्त्व खोज लेता है,जो कभी व्यक्ति से जोड़कर और कभी तोड़कर एक सतत गतिशील समाज को जन्म देते हैं। ‘कठगुलाब’ जैसी रचना को हम न यथार्थवादी लेखन के फुट्टे से नाप सकते हैं, न उत्तर आधुनिकता के फतवे देकर अलग कर सकते हैं। यह उपन्यास गहरे आत्मनिरीक्षण का अवसर देकर यह चेतावनी देता है कि नारी को ऊसर करती जा रही सामाजिक व्यवस्था आत्मघाती नहीं तो क्या है ‘कठगुलाब’ एक बड़ा और कड़े बौद्धिक अनुशासन में रचा गया उपन्यास है। एक आलोचक के शब्दों में, यह उपन्यास एक आँधी की तरह हमें झकझोरता है...

स्मिता

मेरा नाम स्मिता है। कोई बीस साल बाद मैं अपने घर लौटी हूँ। वही मिट्टी से भरा घर। कुछ याददाश्त में धुँधलाया, कुछ एकाएक सामने पड़ जाने पर अनचीन्हा। पर अपरचिय ज्यादा देर नहीं टिका। टिकता कैसे ? बीस बरस कुछ भी नहीं हैं, यहाँ के लिए। सच कहती हूँ, शहर के भीतर घुसी तो लगा, अभी तो गई थी, एकाध साल हुआ होगा। कुछ भी तो नहीं बदला। वहीं आवाजें, आवाजों का जमघट, शोर, फिर भी शोर में अलग-अलग पहचान बनाए स्वर। वही रोशनी और अँधेरे का खिलवाड़ कभी रोशनी हावी तो तत्काल अँधेरा हाजिर। वही रुक-रुककर बहती हवा। वही चारों तरफ फैला मिट्टी का साम्राज्य, जो दीवारों की नाकेबंदी नहीं मानता। इसीलिए तो दीवारों से घिरे घर में न आकर भी कहती हूँ, मैं घर लौटी हूँ।
दीवारों की बात करें तो, जिस चारदीवारी को छोड़कर गई थी, वह मेरा घर कब था ? मैं तो उस नरक से जान छुड़ाकर भागी थी न ! पर मेरे दूर रहते-रहते नरक से खुद शैतान पलायन कर गया। नरक ने भी ठौर बदल लिया। अब उसे वही नरक कैसे माने रखा जा सकता है ? यही सब ऊल-जलूल सोचकर हफ्तों निकाल दिए। बहन से मिलने नहीं गई। न अपने आने की सूचना उसे भेजी।
ऊल-जलूल सोचने में माहिर हूँ मैं। बीस साल तक, एकदम पोथी बाँचकर अपने पर हँसना सीखा था। यहाँ की मिटटी ने, आँख की किरकिरी बन, फिर रुला दिया। पर हँसना मैं भूल तो नहीं गई। हँसने के लिए अपने से बढ़िया विषय और कोई नहीं है, यकीन मानिए। और ऊल-जलूल सोचने के लिए मुझे बस जरा-सा अँधेरा चाहिए। उसका जुगाड़ बहुत आसान है यहाँ। एक बात और। धो-धाकर एक बार आँख से किरकिरी निकाल दो तो दृष्टि और साफ हो जाती है। मिटटी के अनेक रूप दिखलाई देने लगते हैं। भीतर-बाहर का फर्क मिट जाता है।

सच, मिट्टी का बड़ा अस्तित्व है यहाँ। कुछ भी कर लें, मिट्टी को अंदर आने से नहीं रोक सकते। दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करोगे, कर लो; झिर्रियों में से मिट्टी अंदर आती रहेगी। मिट्टी के कितने रूप-आकार रंग है। पुरवाई चलती है तो महीन कती धूल अंदर आती है। गेरू रंग की। हाथ में आते ही फिसल जाती है, बारीक नमक की तरह। एक जगह से हटाओ तो उड़कर दूसरी जगह जा जमती है। पछवाँ चलती है तो पावर हाउस की दरदरी राख भीतर आती है। सलेटी-ऊदी। धूल नीचे से ऊपर को उठती है, राख ऊपर से नीचे गिरती है। झाड़ों तो धम से फर्श पर उतर जाती है। बुहारो तो कोनों में जा सिमटती है। बाहर फेंक दो, परवाह नहीं, दुबारा भीतर दाखिल होने में कितनी देर लगती है। महीन धूल से साथ मिलकर, अबकी बार, नीचे से रेंगकर लौट आएगी।
हम मिट्टी से पैदा हुए, मिट्टी में मिल जाएँगे। भारतीय दर्शन में मिट्टी के महत्त्व को हम होश सँभालते ही समझने लगते हैं। दर्शन की जरूरत कहाँ है, यह तो सर्वत्र फैला सत्य है। जग-जाहिर। मि्टटी की सर्वव्यापी, एकमात्र सच्चाई है। ईश्वर, धरणी, प्रकृति, सृष्टि, पार्थिव शरीर, मिट्टी राख। जलाओ तो राख। दफनाओ तो मिट्टी। दोनों का विस्तार निस्मीम है, आगमन निर्बाध।

जब से आई हूँ, मिट्टी देख रही हूँ, सूँघ रही हूँ, छू रही हूँ, फाँक रही हूँ और सुन रही हूँ, उन सूखी पंखुड़ियों-पत्तियों की खड़खड़, जो इस मिट्टी में नहीं है। असल में वही है, मेरे लिए घर की पहचान। वह खुनकभरी धूल, जो पके-पीले पत्तों और सूखे फूलों को बहाकर बगीचा, आँगन, बरामदा पार करते हुए, सीधे कमरों में आ समाती थी, इसी मार्च महीने में।
एक बहुत बड़ा घर है। ऊंची मेहराबदार छतें। लकड़ी की कड़ियाँ। बीच में लटक रहे हैं, मकड़ी के जाले। महीन, कलात्मक, ढाके की मलमल-से कते, ये भी घर हैं, कितने नामालूम-से, पर उसमें रहनेवालों के लिए ठोस संरक्षण लिए, पक्की दीवारों की तरह।
इस घर की दीवारें पक्की हैं भी और नहीं भी हैं। ईंट-गारे की बनी जरूर हैं पर चूना यूँ पुता है कि मेरे नाखून से बढ़कर अस्तित्व नहीं है उसका। जब चाहूँ खुरचकर नीचे झाड़ दूँ। नमिता इतना परेशान क्यों होती है, किरिक-किरिक सुनकर। कानों में उँगली डालकर चीखती है, मत कर, दिल घबराता है, मत कर। मुझे तो खूब मजा आता है, संगीतमय किर-किम, किर-किम के साथ झड़ता चूना, सलेटी फर्श पर चित्रकारी बनाता चलता है। नमिता मारने आती है तो उसका चेहरा उकेर देती हूँ झट फर्श पर। फिर वह मारते-मारते हंस पड़ती है। वैसे, चूना मेरी मदद का तलबगार नहीं है। खुद-ब-खुद भी झड़ पड़ता है, जब-तब। बाहर से भीतर आती फूल-पत्तों से लैस धूल में जा मिलता है।

कितने कमरे हैं इस घर में, एक-में-से एक निकलते हुए। हर कमरे के बाहर बरामदा है। लंबूतरी आरामकुर्सी पर पसरकर आँखें बंद कर लो तो तुरंत सो जाओ। उठो तो ऊपर से नीचे तक धूल में सराबोर। बदन पर जहाँ-तहाँ चिपके रंगीन पत्ते। कई बार तितलियाँ बैठी मिली हैं मुझे, अपने घुटनों पर। एक बार तो एक चिड़िया आकर बालों में दुबक गई थी। ‘‘बहुत समझ, घोंसला समझकर अंडे नहीं दिए,’’ नमिता ने चिढ़ाया था। मैं तो डर ही गई थी। सच,घुँघराले बालों का पूरा झाड़-झंखाड़ उगा था, मेरे सिर पर।
एक चपटी नाकवाली औरत थी, जो सिर पर तेल की बोतल उलटकर, बालों की लटों को पंजों में जकड़ जोर लगाकर खींचा करती थी। हाथ-पैर पटक, चीखें मार-मारकर रोया करती थी स्मिता। पर नकटी की पकड़ ढीली नहीं होती थी। कौन थी वह....शूर्पनखा....नमिता इसी नाम से पुकारती थी उसे....ठीक से याद नहीं। हाँ, बाल जरूर सीधे हो गए थे। कायदे से दो चोटियाँ गूंथकर जब पहली बार, स्कूल गई थी तो नमिता ताली बजा-बजाकर खूब हँसी थी।
स्कूल ? पर फूल-पत्तों से लबरेज धूलवाले उस घर से तो, मैं कभी स्कूल गई नहीं। बरामदे में पड़ी लंबूतरी कुर्सी पर पसरकर अपने-आप पढ़ा करती थी। माँ-पिताजी में से कोई सामने रहता अवश्य था पर पढ़ते हुए जमकर बैठे रहने की पाबंदी नहीं थी। इधर-उधर फुदक-कूदकर, बगीचे में टहल-घूमकर पढ़ाई हुआ करती थी।

कितना बड़ा बगीचा है इस घर में। बड़े-बड़े पेड़। कनेर, नागचंपा, अमलतास, सफेदा, जामुन, आम, नीम, करौंदा, चीकू। जो भी है, वह लंबा, ऊँचा, घना, बड़ा। क्यारी में उगे बौने पौधों पर फूल नहीं खिलते यहाँ। खिलते हैं, ऊँचे-बड़े पेड़ों पर। हवा धूल के साथ फूलों की पंखुड़ियाँ बहा ले आती है भीतर, कमरों में। कमरों के दरवाजे यहाँ हमेशा खुले रहते हैं। खिड़कियाँ भी। ऊंचे पेड़ पर फूल खिलते हैं तो बेशुमार....झड़ते हैं तो एक साथ। बह आते हैं, कमरों के फर्श को बगीचा बनाते हुए बिछ जाते हैं।
एक कमरा बरामदे के ठीक सामने पड़ता है। औरों से बड़ा भी है। पतझड़ के मार्च महीने में असल बगीचा यहीं बनता है। और हम दोनों लड़कियों के लिए खेल का मैदान भी। कभी हनुमान बनते हम, कभी धनुर्धर अर्जुन। तीर-कमान हाथ में लिये निशाने लगाते, फर्श से कुर्सी और कुर्सी से फर्श पर कूदकर सुमेरु पर्वत फलाँगते। ढोल बजा-बजाकर अपनी जीत का ऐलान करते। हम पर क्या कोई बंधन नहीं था ? माँ-पिताजी ने कभी कूद-फाँद करने से मना नहीं किया। हम दोनों.....कोई तीसरा मुझे याद नहीं, दोस्त-सहेली, कोई नहीं। नहीं, उस घर से मैं नहीं भागी थी। वही कहीं बिला गया था। अब लौटने पर, मैं फिर उसके भीतर हूँ या वह मेरे भीतर।

बीस साल पहले नमिता ने कहा था, ‘‘स्मिता, तू तो पागल है। वह कोई बडा-बड़ा घर नहीं था और जिसे तू बगीचा कहती है, वह घर के सामने का सार्वजनिक मैदान था। माँ ने उसमें ढेरों नीम और कुछेक अमलतास, कनेर, नागचंपा, जामुन, आम, करौदे के पेड़ लगवा दिए थे।’’ उनका कहना था, ‘‘पेडों से छनकर आए तो हवा साफ रहती है।’’ साफ हवा की हमें जरूरत भी बहुत थी। छूत के डर से कोई हमारे घर नहीं आता था। नहीं, बेवकूफ, हमें कोई बीमारी नहीं थी, पर माँ कोढ़ियों के अस्पताल में काम करती थीं। एक गोरा डॉक्टर कहीं से आकर बराबर के गाँव में बस गया था। उसी ने वह अस्पताल खोला था। माँ कोई डॉक्टर-वॉक्टर नहीं थीं। नर्स ? हाँ नर्स भी कहाँ, सेविका भर थीं। धुर देहात में एक औद्योगिक कस्बा था वह। पिताजी वहाँ एक फैक्टरी के मैनेजर थे। हाँ, याद आया, सीमेंट की फैक्टरी थी। तभी तो धूल में सलेटी कणों की भरमार रहती थी और चूने की चित्रकारी बढ़िया हो पाती थी। फर्श सलेटी था न। बेवकूफ, नमिता कहती थी, वहाँ से निकलकर शहर न आते तो हमेशा के लिए अनपढ़, गँवार रह जाते। बंदरों की तरह तीर-कमान और गुल्ली-डंडे से खेलते.....’’

इस बगीचे के एक कोने में कठगुलाब की झाड़ी है। मैंने उगाई है। पिताजी का कोई दोस्त हैदराबाद से ‘वुडरोज’ के दो फूल लेकर आया था। नमिता ने छीना-झपटी करके उन्हें तोड़ दिया था। बीच से निकलकर, कोट के बटन जितने बड़े और उतने ही सख्त, दो काले बीज नीचे गिर गये थे। मैंने झपट लिये थे। इत्ते बड़े बीज। तो पेड़ भी खूब बडा होगा, नहीं ? फैक्टरी का एक माली सेम-मटर की फलियाँ उगाया करता था। उसके पास ले गई तो बोला, ‘‘ये क्या पत्थर उठा लाई। कित्ता सखत है, ये भला कैसे उगेगा। फेंक दो जाकर।’’ मैं क्यों फेंकती ? मैंने एक बर्तन में पानी भरा और बीज उसमें डाल दिए। माँ दाल भिगोया करती थीं न। तीन-चार दिन बाद देखा तो वे पिलपिले हो गए थे। सड़ गए बेचारे, मैंने सोचा और बगीचे के एक कोने की मिट्टी हटा, उसमें दबा दिए। फिर वहाँ कोई परी या जादूगरनी आई और जादू का डंडा घुमा गई। यह लहलहाकर झाड़ी फूटी कि सब दंग रह गए। देखते-देखते झाड़ी इतनी घनी और चौड़ी हो गई कि माँ ने चार बाँसों के सहारे ऊपर उठवा दी। अच्छी-भली झोंपड़ी बन गई। मेरा निजी सिर्फ मेरा घर बन गया। मैं वहीं पढ़ती, वहीं खाती और गर्मी की दोपहर वहीं सोती। हरे पत्तों के बीच फलियाँ आनी शुरू हुई तो मैं खुशी से पागल। रोज गिनती करूँ। एक-एक करके सौ से ऊपर कलियाँ गिन लीं मैंने। पर खिली उनमें से एक भी नहीं। जामुनी से भूरी पड़ने लगीं, नरम से सख्त, पर रहीं बंद-की-बंद। पिताजी के दोस्त के लाए जिन फूलों में से बीज निकले थे, वे तो एकदम गुलाब की तरह खिले थे। भूरे काठ के गुलाब। पर ये मुट्ठी की तरह कसी थीं और धीरे-धीरे भूरी से काली पड़ने लगी थीं। फिर एक दिन, माली के कहे पर, सेम की क्यारी में पानी डाल रही थी कि अचानक मैंने पाइप उठाकर एक कली पर पानी की बौछार कर दी। फौरन वहीं, मेरी आँखों के सामने, हुम करके कली खिल गई। भूरे रंग का, काठ में से तराशा गुलाब। पँखुडियों के बीच से ताकती, काली पुतलीवाली आँख। एकदम मेरी आँख-में-आँख डालकर बोली, पहले क्यों नहीं पिलाया पानी ? मैं तो डर ही गई। झट पाइप दूसरी कली की तरफ कर दिया। झनन-हुम। झनन-हुम। कितना मनमोहक खेल। पानी बरसे। झनन। फूल-खिले हुम। फूल खिला, फूल खिला, किलकारी मारती, ताली बजाती एक लड़की, अपने हाथ में सृष्टि का रहस्य थामे।

ऐसा हुआ था न ? मेरी आँखों के सामने, हुम करके, काठ का फूल खिला था न ?
‘‘बकवास,’’ नमिता ने कहा था, तेरे दिमाग में जाने क्या-क्या कपोल-कल्पित बातें आती हैं। फूल को खिलना होता है तो खिलता है। उससे हमारी जिंदगी तो नहीं सँवर सकती। उस कस्बे में पड़े-पड़े हमारा कितना नुकसान हुआ, मालूम है ? शहर गए तो स्कूल में दो क्लास पीछे दाखिला मिला।’’
नुकसान ? वह नुकसान था तो प्राप्ति किसे कहेंगे ?
कठफोड़वा ने चोंच घुसेड़ दी थी, ठीक कठगुलाब की आँख के भीतर। हाँ, स्मिता के उस निजी घर की मोटी शाख के बीच, उसने अपना घर बसा लिया था। शुरू-शुरू में वह एक चलता-फिरता कठगुलाब नजर आया था। नरम हरे पत्तों से ढकी सींकनुमा टहनियों के झुरमुट के बीच, फुदकता रहता, इधर से उधर। फिर पत्ते झड़ गये थे और अनगिनत कलियाँ उभरने लगी थीं। स्मिता ने पानी का झनन-हुम खेल शुरू किया भी नहीं था कि कठफोड़वा ने धावा बोल दिया था। खिलने से पहले कलियों को तिड़काकर उसकी पानी की बौछार को नाकारा बना दिया था। स्मिता उससे लड़ती तो कैसे ? कठफोड़वा पर उसका कोई वश नहीं था।

बस जितने बन पड़े, उतने कठगुलाब उसने जल्दी-जल्दी झाड़ी से तोड़ लिये थे। शाख से अलग होकर कुछ खिल पाए थे, कुछ नहीं। जो थे, उन्हें सहेजकर वह अपने साथ दिल्ली ले गई थी।
माँ के मरने के बाद, पिता नमिता और उसे लेकर दिल्ली चले गये थे न। उसे माँ का मरना याद नहीं, कठफोड़वा याद है। माँ का होना याद नहीं, उल्लसित आजाद बचपन याद है। झनन-हुम कर खिलता कठगुलाब, फूल-पत्तों से भरी धूल, निजत्व को पोसती झाड़ी की झोंपड़ी। नमिता जिसे नुकसान कहती है, उसके जीवन में न हुआ होता, तो वह लौटकर कौन से घर में आती ?
बी.ए.करते-करते, पिता भी गुजर गए थे और उसे शादीशुदा नमिता के घर शरण लेनी पड़ी थी। पूँजी के नाम पर, मात्र कुछ कठगुलाब। अच्छा, माँ ने इतनी जल्दी पलायन न कर लिया होता तो....
‘‘ये इतना ढेर कूड़ा क्यों उठा लाई ?’’ नमिता ने फटकारा नहीं था सिर्फ दबी जबान में उलाहना दिया था।
‘‘कूड़ा नहीं है यह,’’ उसने उन्हें छाती से सटाया था और स्पर्श मात्र से कुछ पँखुड़ियाँ नीचे झड़ गई थीं। वह समेटने के लिए झुकी थी तो कुछ और गुलाब कूड़ा बन गए थे। उसकी आँखों में आँसू आते देख, नमिता ने उन्हें टोकरी में सहेजकर, एक कोने में रखवा दिया था।

‘‘अजीब मनहूस पेड़ है। पत्ते इतने हरे और चिकने पर फूल खिलेंगे तो शुरू से सूखे,’’ वह बुदबुदाई थी।
‘‘नहीं, ये तो सदाबहार हैं। लकड़ी की तराशी कलाकृतियों की तरह। लोग बाजार से इतनी चीजें खरीदते हैं। ये खुद आते हैं,’’ उसने कहा था।
नहीं, सदाबहार वे नहीं थे। बहुत आसानी से तिड़क, टूट, बिखर जाते थे। कब, कितनी जल्दी उसकी पूँजी खत्म हो गई, वह जान भी नहीं पाई। पर कहीं, इस बड़े घर के खुले बगीचे के किसी कोने में, कठगुलाब की झाड़ी अब भी है। वह उनकी पँखुड़ियों की खड़-खड़ सुन रही है, हवा और धूल के बहने के साथ। वह लौट आई है तो....
नहीं बिल्कुल नहीं। यह भावुकता है। गृह विरह। स्मृति दोष। वह अपने अतीत को झाड़ने-बुहारने वापस नहीं आई। ऑक्सफोम से वजीफा लेकर आई है। अपने से अलग, अनेक तरह की औरतों से संपर्क साधना है, इंटरव्यू लेनी है, प्रोजेक्ट तैयार करना है और अपने पर हँसने का अभ्यास बनाए रखना है। तो हो आए एक बार उस घर में, जिसे छोड़ वह भागी थी और जो खुद दौड़कर कहीं-से-कहीं पहुँच चुका है।
स्मिता पढ़ाई करने में जुट गई थी। शादी के बाजार में भाव बढ़ाने के विचार से नहीं, आगे पढ़ाई करके नौकरी करने के इरादे से। बी.एस.सी. में उसकी प्रथम श्रेणी आई। सब खुश हुए। खासकर जीजाजी। वह जी-जान से उसकी शादी कराने की कोशिश में लग गए। माल बचाने के लिए जी-जान का खर्चा कुछ ज्यादा ही करना पड़ता है। सो जीजाजी कर रहे थे। स्मिता के जी-जान की यों भी कोई कीमत नहीं थी, उनकी नजरों में। इसलिए जो भी मोटा, अधेड़ या गावदी लड़का बिना दहेज शादी करने को तैयार दीखता, वे उसे घर आने का न्यौता दे देते और स्मिता को उसे फँसाने के नुस्खे समझाते। ‘‘त्रिया चरित्र माई डियर, इस्तेमाल करके तो देखो, दबंग-से-दबंग आदमी काठ का उल्लू बन सकता है, तुम्हारे इन कठगुलाबों की तरह। हा-हा-हा। एस.ए., जानती हो न, सैक्स अपील, बेबी, कल जब वह आएगा तो यूँ, जैसे बेखयाली में हो, उसे छूते हुए गुजर जाना फिर यूँ....’’ और फिर वह थियोरी से प्रैक्टिकल पर उतर आते।

कुछ अधेड़ आए और जीजा की हा-हा-हा और स्मिता की चुप्पी से निरुत्साहित हो, बिना हाँ कहे लौट गए। नमिता ने दबी जुबान से प्रतिवाद किया। ‘‘शक्ल-सूरत न सही, पर कम-से-कम लड़का जवान तो हो।’’
‘‘बात ठीक है तुम्हारी,’’ जीजा बोला, ‘‘साली को काबू में रखने का बूता तो हो, वरना वह भी हमीं को सिखलाना पड़ेगा, हा-हा-हा।’’
‘‘मैं शादी नहीं करना चाहती। न अधेड़ से, न जवान से। मैं पढ़ना चाहती हूँ,’’ स्मिता बार-बार कहती।
‘‘मैं कितने दिन तुझे घर में रखूँगी। मर्दों का कोई भरोसा नहीं होता। तू अपने घर चली जाएगी, तभी मुझे शांति मिलेगी,’’ नमिता कहती।
अपना घर ! कहाँ था स्मिता का अपना घर ? वह कठगुलाब की झाड़ी ? क्यों मरी उसकी माँ ? नमिता से ज्यादा वह खुद अशांत थी।
वह हॉस्टल में रहकर पढ़ सकती थी पर उसका खर्चा.....
जीजा अब गावदी, भदेस पर जवान लड़कों की टोह में था।
शाम गहरा चुकी थी। खूब मनुहार करके, जीजा ने उस नाटे-मोटे जवान लड़के को ह्विस्की के तीन पेग पिला दिए थे।
‘‘यह मेरी साली है स्मिता। क्या चीज है यार। घर में रहती है तो समझो.....लार टपकती रहती है अपनी....(फुसफुसाकर) साली आधी घरवाली....हा-हा-हा....पर अपनी बीवी, कयामत की नजर रखती है। मजाल है जो हमारी इधर-उधर फिसल जाए, क्यों स्मिता ?’’
स्मिता उठकर नमिता के पास रसोई में चली आई। जीजा पीछे-पीछे। ‘‘यह क्या। वहाँ जाकर बैठो न। देखो नमिता, इस तरह तो हो ली इसकी शादी।’’
‘‘हाँ, बैठ न स्मिता। खाना मैं लगा लूँगी। बस जरा देर में मेज पर बुलाती हूँ। तेरी मदद की अब जरूरत नहीं है। जा, तू बात कर उससे।’’ स्मिता फिर भी नहीं हिली।
‘‘अरे जा न,’’ नमिता ने उसे धकियाते हुए कहा।

बेखयाली में वह पीछे को फिसली। सँभल पाती उससे पहले जीजा ने उसे बाँहों में भर लिया, वहीं नमिता के सामने।
कान में फुसफुसाया, ‘‘च्च-च्च। कितनी पी ली ?’’ फिर जोर से बोला, ‘‘सँभलकर बेबी, सँभलकर।’’ और उसे छोड़ दिया। नमिता का पूरा ध्यान पूरी छानने पर था। उसने कुछ देखा-सुना नहीं। स्मिता अपने कमरे की तरफ भागी। दरवाजे पर जीजा ने दबोच लिया। एक भरपूर चुंबन ओंठों पर देकर बोला, ‘‘ऐसे जाकर चूम उसे। फिर देख, कैसे नहीं करता शादी।’’
स्मिता उसे धकियाकर कमरे में घुसी और भीतर से सिटकनी चढ़ा ली। नमिता के चीखने-चिल्लाने और दरवाजा पीटने पर हारकर खोलना पड़ा था।
‘‘यह क्या बदतमीजी है। माना कि लड़का जरा उन्नीस था, पर मिल-बैठकर बात करने में क्या हर्ज था ? तेरे जीजाजी इतनी फिक्र कर रहे हैं तेरी। ऐसे करेगी तो वे लड़का क्यों ढूँढ़ने जाएँगे भला ? ’’ उसका मन हुआ, चिल्लाकर पूछे, ‘तुम अंधी हो क्या ?’ पर......
‘‘मुझे हॉस्टल भिजवा दो। बड़ौदा। एम.एस.सी. करूँगी।’’
‘‘तेरे जीजाजी नहीं मानेंगे। आगे पढ़ाई का खर्चा......’’
‘‘सिर्फ एक बार दाखिले की फीस भर दो। फिर स्कॉलरशिप मिल जाएगी। मैं वापस कर दूँगी।’’
‘‘मिल ली स्कॉलरशिप। पढ़ाई में इतनी बढ़िया कहाँ है तू ?’’
‘‘मैं कर लूँगी। तुम जानती हो, मैं जो करना चाहती हूँ कर लेती हूँ। कठगुलाब की झाड़ी उगा ली थी कि नहीं ?’’
‘‘पागल, झाड़ी उगाना और स्कॉलरशिप पाना एक बात है !’’
‘‘मेहनत से सब कुछ हो सकता है। बी.एस.सी. में फर्स्ट डिवीजन लाई हूँ कि नहीं ?’’
‘‘पर शादी ?’’
‘‘कमाई करूँगी तो शादी बिना दहेज होनी आसान हो जाएगी। नमिता, प्लीज।’’
यह तर्क नमिता की समझ में ज्यादा आ गया था। पर जीजा....

‘‘तुम्हारा बाप कारूँ का खजाना छोड़ गया है न, जो निकालकर एकमुश्त हजार रुपया पकड़ा दूँ। एक तुम्हें पाल रहा हूँ, एक इसे और सिर पर लाद लूँ। डेढ़ बीवी रखवानी थी तो दहेज भी ड्योढ़ा देता तुम्हारा बाप। पर उसकी तो अपनी एक, डेढ़ से बढ़कर थी न। हा-हा-हा। माल-मत्ता सब हजम। हा-हा-हा।’’
‘‘हर बात में तुम बाप को क्यों ले आते हो ?’’ नमिता ने बुदबुद की।
‘‘चलो नहीं लाते। साली साहिबा से मुखातिब रहते हैं। आगे पढ़कर क्या करेगी, साली ? पहले आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ है। न सूरत, न नाजो-अदा। कोई इसको हाथ लगाने से रहा...हा-हा-हा, हमारे सिवा।’’ और फौलादी पंजे से कंधा जकड़, उसने उसे अपने ऊपर गिरा लिया था। नमिता देख नहीं पाई थी कि उसकी दुहरी हुई देह के नीचे पति की हथेली उसका वक्ष दबोचे थी। स्मिता ने दर्द से सिसकारी भरी तो नमिता ने टोका, ‘‘अरे छोड़ो उसे। क्यों तंग कर रहे हो। आजकल चश्मा जरूरी है क्या ? कांटेक्ट लैंस लगा लेगी।’’
‘‘बिल्कुल। पर उसके लिए किसी को फँसाना पड़ेगा पहले। पैसा भरवाने के लिए। हाँ, फिगर बुरी नहीं है अपनी बेबी की, फँस भी सकता है, हा-हा-हा।’’ उसने उसे हाथों से जैसे समूचा पीकर अलग किया। और खूब ऊँची हँसी हँसते-हँसते नमिता को जा भींचा। अपने बदन से सटाकर पुच करके गाल पर चूमा और बोला, ‘‘अपनी इस बहन से कुछ सीखो बेबी, क्या एस-ए है। एक पप्पी और, हा-हा-हा।’’
नमिता की आँखों में अविश्वास, संशय और गर्व का मिला-जुला भाव स्मिता के दिमाग को कौंध दे गया। ठीक है, जीजा को उसी के अस्त्र से परास्त करेगी।

उस शाम जीजा कलकत्ते जानेवाला था। सुबह मेज पर बैठा, आलू के पराँठों पर हाथ साफ कर रहा था। नमिता रसोई में पराँठें सेंक रही थी, स्मिता परोस रही थी। तीसरा पराँठा लेकर आई तो बोली, ‘‘मेरी एडमिशन की फीस के पैसे दीजिए, वरना सबकुछ नमिता से कह दूँगी।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘अच्छा क्या ? दे देंगे ?’’
‘‘एक पप्पी दे, फिर बताता हूँ।’’
‘‘बुलाऊँ नमिता को ?’’
उसकी आवाज अभी इतनी ऊँची नहीं थी कि नमिता सुन न सके। पर इतनी ऊपर जरूर उठी थी कि जीजा समझ ले कि और जरा उठा लेने पर, वह आराम से रसोई तक पहुँच सकती है।
जीजा हा-हा कर हँस दिया। फिर अचानक जोर से चिल्ला उठा, ‘‘नमिता ! ओ नमिता। जल्दी आ इधर।’’ नमिता कौंचा पकड़े-पकड़े दौड़ी आई।
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘देख तो अपनी बहन को। कहती है, एडमीशन के रुपये दो, वरना तुम्हें बदनाम कर दूँगी। हा-हा-हा।’’
‘‘झूठ ! एकदम झूठ ! ये खुद मुझे छेड़ते रहते हैं।’’ भौंचक स्मिता चीखी थी।
‘‘बेशर्म !’’ नमिता ने हाथ का कौंचा उसके मुँह पर दे मारा था। कौंचा चश्मे पर लगा था। शीशा टूटकर नीचे गिर गया था। उसे दीखना बन्द हो गया था।

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