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हिन्दी-भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास

सत्यनारायण त्रिपाठी

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7582
आईएसबीएन :9788171249664

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हिन्दी-भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास

Hindi-Bhasha Aur Lipi Ka Etihasik Vikas - A Hindi Book - by Satyanarayan Tripathi

संसार की भाषाओं से हिन्दी का सम्बन्ध

आज हिन्दी स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा है। राजनैतिक स्तर पर हिन्दी की गणना विश्व की महत्त्वपूर्ण भाषाओं में होने लगी है। भाषा की दृष्टि से उसका महत्त्व निर्धारित करने के लिए संसार की भाषाओं का ऐतिहासिक परिचय आवश्यक है। इस समय इन भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है पहली अवस्था में है। इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिला-लेखो, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है। मेसोपोटेमिया की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं। दूसरी अवस्था में ऐसी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है। बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं। तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। हिन्दी का सम्बन्ध इन्हीं भाषाओं से है। अतः हिन्दी को जानने के लिए पहले इन भाषाओं का वर्गीकरण करना आवश्यक है।

वर्गीकरण के आधार

भाषा का सम्बन्ध व्यक्ति, समाज और देश से होता है। इसलिए प्रत्येक भाषा की निजी विशेषता होती है। इनके आधार पर वह एक ओर कुछ भाषाओं से समानता स्थापित करती है और दूसरी ओर बहुत-सी भाषाओं से असमानता। मुख्यतः यह वैशिष्टयगत साम्य-वैषम्य दो प्रकार का होता है–आकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी। प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैं–आकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। इस विवेचन का सम्बन्ध ऐतिहासिक वर्गीकरण से है इसलिए उसके आधारों को थोड़ा विस्तार से जान लेना चाहिए। इसमें आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए।

(1) भौगोलिक समीपता–भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है। इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खड़ों में विभाजित की गयी हैं। किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं।

(2) शब्दानुरूपता–समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और दो तरह से सम्भव होती है। एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से समानता आ जाती है। इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता स्थापित हो जाती है। पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही काम की होती है। क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं। इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है।

इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

(3) ध्वनिसाम्य–प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती हैं और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की क, ख, फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है। अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक कर देती हैं। आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं।

(4) व्याकरणगत समानता–व्याकरणिक आधार सबसे अधिक

प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण व्याकरणिक प्रक्रिया द्वारा शब्दों से पदों की रचना तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है।

इन चार आधारों पर भाषाओं की अधिकाधिक समानता निश्चित करते उनका वर्गीकरण किया जाता है। इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से समझ लेना चाहिए कि यह साम्य-वैषम्य सापेक्षिक है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं।

वर्गीकरण की प्रक्रिया

वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं। फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं। अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक आदि की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और रचना-पद्धति में काफी समानता है। अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है। परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। भारोपीय परिवार में शतम् और केन्टुम ऐसे ही वर्ग हैं। वर्गों का विभाजन शाशाओं में हुआ है। शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ प्रमुख शाखाएँ हैं। शाखाओं को उपशाखा में बाँटा गया है। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को भीतरी और बाहरी उपशाखा में विभक्त किया है। अतः में उपशाखाएँ भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।

वर्गीकरण

उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की ओर आकृष्ट हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये है; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर फेडरिख मूलर इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर राइस विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं। किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं। इसलिए यहाँ संसार की भाषाओं का बारह कुलों में विभक्त कर परिचय दिया गया है।

भाषा-कुलों का संक्षिप्त परिचय

संसार की भाषाएँ निम्नलिखित बारह कुलों या परिवारों में विभक्त की जाती हैं।
(1) सेमेटिक-हेमेटिक कुल–इस कुल का नामकरण इंजील के एक आख्यान में आये दो पुराण पुरुषों–‘सैम’–‘हैम’ के नाम पर हुआ है। इस नामों का हिन्दीकरण सामी-हामी होगा। इस कुल में दो प्रमुख वर्ग है।–सामी और हामी जिनको बहुत-से भाषाशास्त्री दो स्वतन्त्र कुल मानते हैं। सभी का क्षेत्र मुख्यतः एशिया और मिस्त्र है। इस कुल की अरबी भाषा का प्रसार उत्तरी अफ्रीका में भी हो गया है। मुख्य भाषाएँ बाबिलोनीय, फिनिशीय, हिब्रू, अरबी और हबशी हैं। हिब्रू में बाइबिल और अरबी में कुरान लिखा गया था। इसकी कुल भाषाओं में 2500 ई. पू. तक के शिलालेख उपलब्ध होते हैं। इन भाषाओं की धातुएँ तीन-तीन व्यंजनों की होती हैं–क्तब् (लिखना), द्ब्र (बोलना)। स्वरों के योग से शब्द बनते हैं–क्तब् से कातिब, किताब आदि। समास व्यक्तिवाची शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों में नहीं होता है।

हेमेटिक भाषाओं का क्षेत्र उत्तरी अफ्रीका के अतिरिक्त मध्य एवं दक्षिण-अफ्रीका के कुछ भागों में भी हैं। इस कुल की मुख्य भाषाएँ काप्टिक, लीबियन या बर्बर, कुशीय या एथिओपीय, हौसा (सहारा की भाषा) और सोमाली हैं, जिनमें मिस्त्र की पुरानी भाषा काप्टिक मुख्य है। इसमें ईस्वी सन् से पहले के चित्रलिपि में लिखे नमूने और धार्मिक रचनाएँ मिलती हैं। हेमेटिक भाषाओं में क्रिया से शब्द बनाने में परसर्गों एवं उपसर्गों का प्रयोग होता है। शब्दों में अर्थ परिवर्तन स्वराधीन होता है। लिंग-निर्णय का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं है। जैसे, सोमाली भाषा का एक शब्द है–‘गल’, जिसका अर्थ जाना है। किन्तु स्वर परिवर्तन के कारण ‘गेलि’ का अर्थ बदल कर ‘भीतर रखना’ हो जाता है। शब्दों के बहुवचन विभिन्न ढंग से बनते हैं और बहुवचन से एकवचन बनाने की प्रवृत्ति भी है।

(2) तिब्बती-चीनी कुल–इसे चीनीकुल या एकाक्षर परिवार भी कहते हैं। क्योंकि इस कुल की प्रमुख भाषा चीनी है और उनकी अनोखी विशेषता, शब्दों का एकाक्षर होना है। इसका क्षेत्र कोचिन, चीन, कम्बोडिया, टोनकिन, श्याम, तिब्बत, बर्मा आदि के प्रदेश हैं। मुख्य भाषाएँ–चीनी, थाई अथवा श्यामी, तिब्बती तथा बर्मी है, जिनमें सर्वप्रमुख भाषा चीनी है। दो-तीन हजार वर्ष ई. पू. तक के इसके नमूने मिलते हैं। चीनी की एक प्रमुख विशेषता एकाक्षर शब्द हैं जिनके रूप वाक्य में प्रयुक्त होने पर भी बदलने नहीं। एक ही शब्द प्रयोगगत स्थान के अनुसार संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि हो जाता है। अतः वाक्य में शब्दों के स्थान निश्चित होने के कारण यह भाषा व्याकरण रहित है।तीसरी विशेषता यह है कि सुर (Tone) भेद के आधार पर शब्दों के विभिन्न ढंग से उच्चरित होने से उनके अनेक अर्थ हो जाते हैं।

इसकी चित्रलिपि एक अन्य विशेषता है, जिसमें प्रत्येक ध्वनि (वर्ण) के लिए एक लिपिचिह्न न होकर एक भाव के लिए, एक संकेत होता है। ये विशेषताएँ इस कुल की अन्य भाषाओं में चीनी के समान अब सुरक्षित नहीं है। क्योंकि वे अन्य भाषाओं से पर्याप्त प्रभावित हुई हैं।

(3) यूराल-अतलाई कुल–प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम–‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल भी हैं। इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है, किन्तु मुख्यतः साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया में हैं। प्रमुख भाषाएँ–तुर्की या तातारी, किरगिज, मंगोली और मंचू है, जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानली है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है। ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं। प्रत्ययों के योग से शब्दनिर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताएँ हैं। स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि मक प्रत्यय यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। (लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा।

(4) द्राविड़ कुल–द्राविड़ कुल की भाषाएँ दक्षिण-भारत के अतिरिक्त उत्तरी लंका, लक्षद्वीप, बिलोचिस्तान, मध्यभारत तथा बिहार और उड़ीसा के कुल प्रदेशों में फैली हुई है। उत्तरी भारत की भाषाओं, यूराल-अल्ताई कुल, फिनो-उग्रिक वर्ग, आस्ट्रिक परिवार तथा मोहनजोदड़ों की संस्कृति आदि से समय-समय पर इस वर्ग को सम्बन्धित करने की चेष्टा की गयी है, किन्तु अब तक कोई सफलता नहीं मिल सकी है। तेलुगू, तामिल, मलयालम और कन्नड़ इस परिवार की विकसित भाषाएँ हैं। साहित्य की दृष्टि से तमिल सर्वश्रेष्ठ है, जिसका अलवार-काव्य अत्यन्त प्रसिद्ध है। तमिल की मुख्य शैली ‘मणिवाल’ संस्कृत-शब्द-बहुल है तथा साहित्यिक रूप शेन है। कन्नड़ का क्षेत्र मैसूर है। इसका साहित्य काफी पुराना और समृद्ध है। यह भी संस्कृत से काफी प्रभावित है। इसकी लिपि तेलुगू-लिपि के काफी समीप है। मलयालम तमिल से विकसित हुई है और तेलुगू, तमिल एंव कन्नड़ की भाँति पुरानी भाषा है। मलयालय और कन्नड़ में भी साहित्य मिलता है। अन्य भाषाएँ–तुलू, तोड़ा गोंडी, कुई आदि हैं। द्रविड़ कुल की भाषाओं की मुख्य

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