उपन्यास >> चार आँखों का खेल चार आँखों का खेलविमल मित्र
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अगर भविष्य के बारे में मनुष्य अंधा न होता तो दुनिया में रहना एकदम बेमजा हो जाता।
Char Aankohon Ka Khel
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चार आँखों का खेल यह एक दूसरा ही पक्ष है। कितने पक्षों को लेकर लिखूँ ? इस पृथ्वी पर इतनी विचित्रता, इतनी विशिष्टता है कि मन करता है जी भर कर अनिश्चित काल तक इसी में अवगाहन करता रहूँ। मेरे सृष्टिकर्ता ने मुझे मात्र दो नेत्र एवं दो पैर दिये हैं। जिस विधाता ने इस वैचित्र्य कथा का सृजन किया उसे क्या पता नहीं था कि इतना सब देखने के लिये ये दो नेत्र पर्याप्त नहीं हैं और इन दो पाँवों से भी इतना नहीं चला जा सकता ! चारों ओर देख-देख कर कभी-कभी मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहता। लगता है यह जैसे कभी खत्म ही नहीं होगा। मन करता है विधाता को पुकार कर पूछूँ कि प्रभु तुम्हारे भी क्या मेरे समान केवल दो हाथ हैं ? और अगर ऐसा ही है तो मात्र दो हाथों से यह विभिन्न-रूपा सृष्टि बनाई कैसे ? गलती से भी तो दो फूल, दो मनुष्य अथवा दो पक्षी एक जैसे नहीं हुए। तुम्हारे अकेले के द्वारा यह संभव कैसे हुआ ?
मैं बहुत दिनों से मनुष्य को पहचानने का प्रयत्न कर रहा हूँ। बचपन में अपने आत्मीय-स्वजनों को देखा है। बड़े होने पर पुनः उन संबंधियों को देखा-परखा है। बाहर से तो वह जरा भी नहीं बदले। शक्ल देखकर यदि मनुष्य पहचाना जाता तो कहानी लिखने वालों का कार्य सरल हो जाता लेकिन साहित्य नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व होता या नहीं इसमें सन्देह है।
वास्तव में आजकल ये कहानी, उपन्यास व नाटक जो बड़े निम्न-स्तर के लगते हैं उसका एक मात्र कारण शायद यही है कि लेखक मनुष्य का ऊपरी चेहरा देखकर कहानी लिखते हैं, और चेहरे पर अधिकांशतः मुखौटा चढ़ा होता है। मनुष्य जितना ही सभ्य होता है उतना ही यह मुखैटा मजबूत होता है।
मुझे याद है कि एक बार एक सज्जन ने मुझसे एक बड़ा अजीब प्रश्न पूछा था। उन सज्जन का भी कोई दोष नहीं था। वह उपनगर-वासी थे। जीवन में किसी कहानी लेखक को उन्होंने देखा नहीं था।
बोले–एक प्रश्न पूछूँ आपसे ?
मैं बोला–पूछिए!–
–अच्छा, आप लोग क्या किताबें देख-देखकर कहानी लिखते हैं ?
चौंककर मैंने उलटा प्रश्न किया था–क्यों ? ऐसा क्यों कह रहे हैं ? वह सज्जन बोले–पहले कभी किसी कहानी लेखक को देखा नहीं है न, इसलिए पूछ रहा हूँ, आप बुरा मत मानिएगा–
मैं बहुत दिनों से मनुष्य को पहचानने का प्रयत्न कर रहा हूँ। बचपन में अपने आत्मीय-स्वजनों को देखा है। बड़े होने पर पुनः उन संबंधियों को देखा-परखा है। बाहर से तो वह जरा भी नहीं बदले। शक्ल देखकर यदि मनुष्य पहचाना जाता तो कहानी लिखने वालों का कार्य सरल हो जाता लेकिन साहित्य नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व होता या नहीं इसमें सन्देह है।
वास्तव में आजकल ये कहानी, उपन्यास व नाटक जो बड़े निम्न-स्तर के लगते हैं उसका एक मात्र कारण शायद यही है कि लेखक मनुष्य का ऊपरी चेहरा देखकर कहानी लिखते हैं, और चेहरे पर अधिकांशतः मुखौटा चढ़ा होता है। मनुष्य जितना ही सभ्य होता है उतना ही यह मुखैटा मजबूत होता है।
मुझे याद है कि एक बार एक सज्जन ने मुझसे एक बड़ा अजीब प्रश्न पूछा था। उन सज्जन का भी कोई दोष नहीं था। वह उपनगर-वासी थे। जीवन में किसी कहानी लेखक को उन्होंने देखा नहीं था।
बोले–एक प्रश्न पूछूँ आपसे ?
मैं बोला–पूछिए!–
–अच्छा, आप लोग क्या किताबें देख-देखकर कहानी लिखते हैं ?
चौंककर मैंने उलटा प्रश्न किया था–क्यों ? ऐसा क्यों कह रहे हैं ? वह सज्जन बोले–पहले कभी किसी कहानी लेखक को देखा नहीं है न, इसलिए पूछ रहा हूँ, आप बुरा मत मानिएगा–
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