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वयस्क किस्से

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 774
आईएसबीएन :

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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से



बचपन में सहेलियों के साथ शरारतें करने पर कई बार ऐसा हो जाता था। परंतु बड़े होने के बाद से, उसे याद नहीं कि उसका दिल इतनी जोर फिर कभी धड़का हो। कुछ हद तक सुहागरात को भी मारे शर्म और उस समय तक अजनबी रहे अपने पति के सामने पहली बार कपड़े उतारने के कारण उसकी हालत कुछ ऐसी ही हुई थी। लेकिन उस समय सब कुछ अपेक्षित था, उस समय जो कुछ हुआ, इस बात का अंदाजा उसे पहले से था, यह अलग बात थी कि सब कुछ बिलकुल जैसा उसने सोचा था, उस तरह से नहीं हुआ था। परंतु आज बहुत वर्षों के बाद उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो! क्या राजू ने कुछ देखा था?

मन कुछ समय होने पर जब शांत हुआ, तब उसे समझ में आया कि राजू असल कुछ देख नहीं पाया है, नहीं तो अब भी इतनी तल्लीनता से वीडियो गेम न खेल रहा होता! यह कब से घर में आया हुआ है? और अंदर कैसे आया? कैसे मजे से चुपचाप वीडियो गेम खेलने में लगा है। आज स्कूल नहीं गया क्या? अचानक उसकी बुद्धि चली और उसे समझ में आया कि उसने जो लकड़ी की ठक-ठक जैसी आवाज सुनी वह असल में निन्टेंडो के कंट्रोलर की खिट-खिट थी। वह अपने आपको, अपनी इतनी बड़ी लापरवाही के लिए बार-बार कोसने लगी। ग्यारहवीं मंजिल है तो क्या हुआ बाहर का दरवाजा तो ठीक से बंद करना चाहिए था। कोई चोर-बदमाश या गलत आदमी ऐसे अंदर घुस आता तो पता नहीं क्या होता?

उसने धीरे से उठकर बेडरूम के अंदर वाली कुंडी को दायें से बायें खिसकाकर दरवाजा बिना किसी आवाज के पूरा बंद कर दिया। अब वह पूरी तरह सुरक्षित थी। वह पुनः डबल बेड पर बैठकर थोड़ी देर तक अपने को ढाड़स बंधाती रही कि सब कुछ ठीक है। वह पुनः उठकर गोदरेज की आलमारी के दरवाजे पर लगे बड़े दर्पण के सामने खड़ी हो गयी और इस बार उसने अपना तौलिया पूरा गिर जाने दिया। बल्लियों उछलते दिल की धड़कनों को लगभग देख सकती थी।

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