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उत्तराधिकारी

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7866
आईएसबीएन :978-81-8031-435

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कहानी संग्रह...

Uttaradhikari - A Hindi Book - by Yashpal

यशपाल के लेखकीय सरोकारों का उत्स सामाजिक परिवर्तन की उनकी आकांक्षा वैचारिक प्रतिबद्धता और परिष्कृत न्याय-बुद्धि है। यह आधारभूत प्रस्थान बिन्दु उनके उपन्यासों में जितनी स्पष्टता के साथ व्यक्त हुए हैं, उनकी कहानियों में वह ज्यादा तरल रूप में, ज्यादा गहराई के साथ कथानक की शिल्प और शैली में न्यस्त होकर आते है। उनकी कहानियों का रचनाकाल चालीस वर्षों में फैला हुआ है। प्रेमचन्द्र के जीवनकाल में ही वे कथा-यात्रा आरम्भ कर चुके थे, यह अलग बात है कि उनकी कहानियों का प्रकाशन किंचिते विलम्ब से आरम्भ हुआ। कहानीकार के रूप में उनकी विशिष्टता यह है कि उन्होंने प्रेमचन्द के प्रभाव से मुक्त और अछूते रहते हुए अपनी कहानी-कला का विकास किया। उनकी कहानियों में, संस्कारगत जड़ता और नए विचारों का द्वन्द्व जितनी प्रखरता के साथ उभरकर आता है, उसने भविष्य के कथाकारों के लिए एक नई लीक बनाई जो आज तक चली आती है। वैचारिक निष्ठा, निषेधों और वर्जनाओं से मुक्त न्याया तथा तर्क की कसौटियों पर खरा जीवन—वे कुछ ऐसे मूल्य हैं जिनके लिए हिन्दी कहानी यशपाल की ऋणी है।

‘उत्तराधिकारी’ कहानी संग्रह में उनकी ये कहानियाँ शामिल हैं : उत्तराधिकारी, जाब्ते की कार्रवाई, अगर हो जाता ?, अंग्रेज का घुँघरू, अमर, चन्दन महाशय, कुल-मर्यादा, डिप्टी साहब और जीत की हार।

अनुक्रम


  • उत्तराधिकारी
  • जाब्ते की कार्रवाई
  • अगर हो जाता ?
  • अंग्रेज का घुँघरू
  • अमर
  • चन्दन महाशय
  • कुल-मर्यादा
  • डिप्टी साहब
  • जीत की हार

  • ‘‘ऐं ! ऐं’’ का उत्तर


    कुछ दिन एक बहुत तंग जगह में रहने का अवसर हुआ था। सोना, बैठना, राँधना और नहाना-धोना सब एक कमरे में था। कमरे में एक ओर दरी-चटाई बिछा कर बैठने की जगह बना ली गयी थी। एक कोने में अँगीठी और बर्तन, दूसरी ओर कोने में मोरी के पास बाल्टी-लोटा और साबुन रखा रहता था।
    घर में आठ-नौ मास का एक बच्चा भी था। बच्चे की माँ सोने-पिरोने में लगी हुई थी। मैं एक ओर बैठा कुछ पढ़ रहा था। बच्चा घुटनों के बल रेंगता बाल्टी-साबुन के पास जा पहुँचा।

    ‘‘ऐं ! ऐं !’’ बच्चे का स्वर सुनाई दिया। देखा, बच्चा साबुन की बटिया मुँह में डाल रहा था।
    ‘‘देखो, देखो !’’ बच्चे की माँ का ध्यान उधर दिलाया, ‘‘साबुन खा रहा है !’’
    ‘‘खायेगा नहीं !’’ मां ने सिलाई की ओर से आँख नहीं हटायी।
    ‘‘मुँह में डाल रहा था, जल्दी उठी !’’ आग्रह किया।

    ‘‘नहीं, खाएगा नहीं।’’ माँ मुस्करायी, ‘‘ध्यान खींचने के लिए डरा रहा है। उधर मत देखों, छोड़ देगा।’’
    कुछ विस्मय हुआ। पुस्तक की ओर मुँह मोड़ कनखियों से देखता रहा। बच्चे ने साबुन नीचे डाल दिया और खाली डिबिया से खेलने लगा।
    ‘‘हाँ, सचमुच नहीं खा रहा,’’ मैंने स्वीकार किया, ‘‘बड़ा शैतान है !’’
    ‘‘अब फिर देखना !’’

    माँ सिलाई से ध्यान हटा, बच्चे से बोली—‘‘हाय, साबुन खा रहा है ! ना, ना बेटा ! छि, छि ! ना, या नहीं खाना।’’
    बच्चा फिर साबुन मुँह में डालने लगा।
    बच्चों से निभा पाने के लिए उनका स्वभाव समझना आवश्यक होता है।
    डाक्टर रामविलास, अमृतराय और चन्द्रबलीसिंह मेरी रचनाओं की दस-दस, बीस-बीस पृष्ठ की आलोचना करते हैं। मैं उन्हें देखता न होऊँ सो बात नहीं। बहुत से लोगों के बार-बार आग्रह करने पर भी उनकी ‘‘ऐं ! ऐं !’’ का उत्तर नहीं देता। कारण ऊपर की घटना से स्पष्ट है।

    पाठकों का ध्यान आकर्षित करने और अपने नाम की चर्चा सुनने की इच्छा उनमें स्वाभाविक है। कब उनकी ‘ऐं ! ऐं !’ का उत्तर देना उचित है और कब उपेक्षा करना, यह आलोचकों की ‘ऐं ! ‘ऐं !’ के तथ्य को परख कर रचनात्मक लेखकों को स्वयं ही समझना चाहिए। राहुल जी ने उपेक्षा ही की। रांगेय राघव ने उसकी इतनी परवाह क्यों की ? इतनी अच्छी और बेजोड़ चीजें लिखना छोड़कर केवल ‘अहं’ के लिए की जाने वाली ‘ऐं ! ऐं !’ की ओर ध्यान देना। परिणाम हुआ केवल आदत बिगाड़ना अब ‘ऐं ! ऐं !’ इतनी बढ़ गयी है कि उत्तर देना जरूरी हो गया।

    यह बात नहीं कि पाठक से लेखक कुछ सीखता न हो। जनता से ग्रहण की हुई भावनाएँ और प्रेरणाएँ ही साहित्य बनकर फिर जनता की ओर लौटती हैं, जैसे वाष्प बनकर पृथ्वी से ऊपर उठा जल बादल बन कर पृथ्वी पर बरसता है। आलोचकों को पाठकों का प्रतिनिधि ही समझा जाना चाहिए। जनता पर लेखक की रचना का कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता है। उस प्रभाव की प्रतिक्रिया ही आलोचकों द्वारा प्रकट होनी चाहिए ताकि लेखक के प्रयत्न पाठकों के लिए अधिक उपयोगी और सन्तोषप्रद हो सकें लेकिन आलोचक जब सर्वसाधारण पाठकों पर पड़े प्रभाव या उनकी प्रतिक्रिया की उपेक्षा कर उन्हें आज्ञा दे कि तुम पर ऐसा प्रभाव पड़ना चाहिए तो वह जनता का वैसा ही प्रतिनिधित्व करता है जैसा कि जनता के विचारों का दमन करने वाला तानाशाह कर सकता है।

    प्रगतिशील के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला आलोचन अभी कल तक रचनात्मक लेखक को समझाता था कि जनता की आर्थिक लड़ाई और वर्ग चेतना के अतिरिक्त किसी और विषय पर लिखना पलायन है। आज वह राहुल पर साम्राज्यवाद और सामन्यवाद का रक्षक होने की तोहमत इसलिए लगाता है कि राहुल ने अभी इस देश में सामाज्यवाद और सामन्तवाद से संघर्ष की आवश्यकता होते हुए भी वर्गहीन समाज के लक्ष्य का परिचय जनता को दे दिया। रामविलास की बुद्धि के अनुसार राहुल ने ऐसा कर ‘नये जनतंत्र’ के लिए संघर्ष को कमजोर बनाया। मानो, वर्गहीन समाज को लभ्य मानने वाली जनता जनतंत्र का विरोध या उपेक्षा करेगी।

    प्रगतिवाद के प्रतिनिधित्व का दम्भ करने वाले इस आलोचक के मत में, राहुल जी का यह काम ‘त्रात्सकीवाद’ है। ऐसे विकट मार्क्सवादी के अनुसार जर्मनी में सामन्तवाद और साम्राज्यवाद का अन्त हुए बिना ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ लिख कर संसार के मजदूरों के सामने वर्गहीन समाज का लक्ष्य रख देना क्या था ? रूस में साम्राज्यवाद और सामन्तवाद दोनों के विरुद्ध संघर्ष की आवश्यकता रहते हुए लेनिन का रूस के मजदूरों को वर्गहीन समाज का लक्ष्य समझाना क्या था ? यदि मार्क्स और लेनिन आज मौजूद होते तो रामविलास पाठकों की नजर में चढ़ने के लिए उन दोनो को भी त्रात्सकीवादी बता सकता था। जो आदमी ‘लक्ष्य’ और ‘तात्कालिक कार्यक्रम’ के अन्तर को हड़प जा सके, समाज की अनेक समस्याओं की ओर से आँख मूँद सके वही इतना हत-बुद्धि हो जा सकता है कि अपने ‘अहं’ के फेर में, अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने का हो-हल्ला खड़ा करने के लिए प्रगतिवाद की साझी नाव में छेद कर दे।

    राहुल को सामन्तवाद और साम्राज्यवाद की रक्षा करनी थी इसीलिए उन्होंने मानवता के कल्याण का एकमात्र उपाय ‘समाजवाद ही क्यों ?’ क्यों बताया है ? ‘ऐं ! ऐं !’ का प्रयोजन तो पूरा हो गया। लोगों ने चकित होकर पूछा—हिन्दी जगत को समाजवाद का परिचय सबसे पहले और विस्तृत रूप में देने वाले और रूढ़िवादियों के क्रोध का पात्र बनने वाले लेखक को भी सामन्तवाद और साम्राज्यवाद का सहायक सिद्ध कर देने की विद्वता किसमें हैं ? बस काफी है। नाम को कुछ आगे बढ़ाने की योग्यता दिखाकर ध्यान आकर्षित नहीं किया जा सकता तो नाव में छेद करके ही सही। ध्यान आकर्षित करने के लिए शरारत निश्चय ही अधिक सफल होती है।

    और उदाहरण लीजिए। मेरी दो कहानियों की आलोचना से अमृतराय ने निष्कर्ष निकाला है : ‘यह सड़ी-गली साम्राज्यवादी नैतिकता है जिसका समाजवादी नैतिकता से रत्ती भर मेल नहीं’ और ‘यह बेहूदा बात कहने की हिम्मत बोस की इसलिए हुई कि हमारा समाज पुरुषशासित समाज है। जिसमें पुरुष शोषक है और स्त्री शोषित।’ जिन कहानियों से ऐसे निष्कर्ष निकलते हैं, अमृतराय उन्हें साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत करने वाली कहानियाँ बताते हैं। उनकी राय में साम्राज्यवादी नैतिकता के प्रति घृणा और विरोध भावना पैदा करना साम्राज्यवाद के हाथ मजबूत करना है ? ऐसी ‘ऐं ! ऐं !’ का क्या उत्तर ?

    मेरी ‘फूलो का कुर्ता’ कहानी की अन्तिम पंक्तियाँ हैं—‘‘बदली हुई स्थिति में भी परम्परागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हो जाता है ?...हम फूलो के कुर्ते के आँचल में शरण पाने के प्रयत्न में उघड़े चले जा रहे हैं और नया लेखक कुर्ते को हमारे चेहरे से नीचे खींच देना चाहता है।’ अमृतराय इस कहानी को आधी दर्जन बार पढ़ जाने पर भी इसका सिर पैर कुछ नहीं समझ पाये। मैंने यह कहानी 1946 में एक वक्तव्य के रूप में बम्बई के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में पढ़ी थी। वहाँ यह कहानी सभी को ‘बहुत साफ’ मालूम हुई थी। बाद में ‘जनयुग’ के अनुरोध पर उन्हें इसे छाप लेने की भी अनुमति मैंने दे दी थी। यह सब इसलिए कि उन लोगों की दृष्टि आलोचक की दृष्टि नहीं थी। एक पाठक आलोचक की राय इस कहानी के लिए थी कि इसमें कला का संकेत न रह कर प्रचार का मुँहफटपना आ गया है। प्रचार की स्पष्टता का दोष इस कहानी में स्वीकार किया जा सकता है परन्तु अमृतराय कहते हैं कि उन्हें इसका भाव, रहस्य या सिर-पैर कुछ समझ नहीं आया। यह है आलोचक की एक पैनी सूझ !

    संक्षेप के लिए मेरे सबसे छोटे उपन्यास ‘पार्टी कामरेड’1 का ही जिक्र पर्याप्त होगा। अमृतराय और रामविलास को इसमें कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ताओं पर कलंक के धब्बे लगाये गये दिखाई देते हैं। यह है आलोचकों की ज्ञान-दृष्टि। और पाठकों की ? इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही नागपुर की मजदूर-सभा के अन्तर्गत ‘प्रेस कर्मचारी संघ’ के कार्यकर्ता प्रचार के लिए इस पुस्तक को लागत मात्रमूल्य में बेंच सकने के लिये बिना मजदूरी लिये छापने को लागत मात्र मूल्य में बेंच सकने के लिये बिना मजदूरी लिये छापने और इसके कागज के लिए आपस में चन्दा कर लेने के लिये तैयार थे। वह है सर्वसाधारण मजदूर की परख परन्तु शायद उन्हें पर्याप्त रूप से सचेत और सतर्क नहीं माना जाएगा। ‘पार्टी कामरेड’ के छपने से पूर्व उत्तर प्रदेश और बिहार प्रान्तों में कम्युनिस्ट संगठन के तत्कालीन निरीक्षक साथी सरदेसाई ने अवसरवश इसे देख लिया था। राय दी थी कि यह उपन्यास उन्हें अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यास For Whom the Bell Tolls ? से अधिक अच्छा लगा। प्रगतिशील आलोचकों की बात पहले कह चुका हूँ। क्या उनकी आलोचना को सर्वसाधारण जनता की प्रतिक्रिया का प्रतिनिधि मान लिया जा सकता है ?

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    1. अब ‘गीता’ नाम से प्रकाशित (1976)।

    जब आलोचना का आधार सैद्धान्तिक न होकर केवल अहं प्रदर्शन का उन्माद (हिस्टीरिया) हो, तब उस ‘ऐ ! ऐं !’ का उत्तर क्या ? एक समय अति वामपक्ष में झुककर सर्वसाधारण को विरोधी बना लेने की भूल हुई तो आज ‘संयुक्त मोर्चे’ के नाम पर, वास्तविक लक्ष्य की ओर संकेत करने की ही त्रात्सकीवाद बताया जा रहा है। संयुक्त मोर्चे का अर्थ है जनता के उद्बोधन और प्रगति के लिए यथा-सम्भव विस्तृत समर्थन और सहयोग पाने का प्रयत्न। संयुक्त मोर्चे के नाम पर जनता के उद्बोधन और प्रगति के लिए प्रयत्न को बलिदान नहीं कर दिया जा सकता।

    आज संयुक्त मोर्चे का रूप रूढ़िवाद और प्रतिगामी भावना की चापलूसी बन रहा है। यह संयुक्त मोर्चा नहीं बल्कि प्रतिगांमिता के सम्मुख आत्म-समपर्ण और पिछलग्गूपन है। सम्भवतः त्रात्सकी उतना अज्ञानी नहीं था जितना कि अहमन्य, स्वार्थ और बदनीयत। त्रात्यकीवाद की राह क्रान्ति और जनहित के लक्ष्य की अपेक्षा अपने ‘अंह’ को अधिक महत्व देना है। यह बदनीयती है। साहित्य में भी त्रात्सकीवादी की पहचान नहीं है।

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