नाटक-एकाँकी >> अमली अमलीहृषीकेश सुलभ
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"अमली: एक आधुनिक नाटक जो बिदेसिया परंपरा को पुनर्जीवित करता है, पारंपरिक तत्वों को समकालीन मुद्दों के साथ मिलाकर सामाजिक वास्तविकताओं को परिलक्षित और चुनौतीपूर्ण बनाता है।"
हृषीकेश सुलभ ने लोकनाट्य शैली बिदेसिया में अन्तर्निहित शक्ति को पहचाना और उसे आधुनिक रंगदृष्टि के साथ जोड़कर उसकी स्थानीयता का अतिक्रमण कर और उसके स्वरूप तथा संरचना में बदलावकर नई अर्थ सम्भावनाएँ पैदा कीं। इस अर्थ में उन्होंने हमारी पश्चिमाभिमुखी प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास किया और साथ ही हिन्दी रंगदृष्टि को उसकी जड़ों से जोड़ रखकर भी एक विशिष्ट प्रकार की आधुनिकता प्रदान की और उसे फिर सन्दर्भवान बनाया। अन्तर्वस्तु के धरातल पर यथार्थ अंकन से जोड़ने के साथ ही भिखारी ठाकुर की नाट्यकल्पना और रंगयुक्तियों को सुरक्षित रखते हुए भी उसे संस्कारित किया और उसे एक मानक स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की। उन्होंने एक भारतीय पारम्परिक रंगदृष्टि का नया आयाम प्रस्तुत करने का प्रयास किया।
अमली में हास्य और रोमांस के क्षणों के बीच शोषण और अत्याचार के विभिन्न चरित्रों को उभारा है। कथा में एक अनिवार्य तनाव के द्वारा हमारे सामाजिक विद्रूप के चेहरों की परत-दर-परत उघड़ती है और हमारे समय तथा समाज की जटिल और विडम्बनापूर्ण स्थितियों का बड़ी बेचैनी तथा तल्ख़ी के साथ सघन रूप से यह कृति अहसास कराती है। केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली द्वारा भुवनेश्वर में सफल मंचन।
बिहार की विदेसिया शैली में लिखित अमली नाटक आधुनिक भी है और अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ भी। नाटक में प्रचुर पारम्परिक गीतों एवं नृत्यों का समन्वय किया गया है जो नाटक के कथ्य एवं विदेसिया शैली दोनों के अभिन्न अंग हैं। सूत्रधार और गड़बड़िया जैसे पात्र अमली को एक ओर संस्कृत परम्परा से जोड़ते हैं तो दूसरी ओर लोक परम्परा से। नाटक रोचक होने के साथ ही हमें सोचने को मजबूर करता है और कहीं वर्तमान परिस्थिति से मुक्ति पाने-दिलाने के लिए उन्मुख करता है। टोटल थिएटर को रूपायित करनेवाली हृषीकेश सुलभ की यह कृति हिन्दी नाट्य साहित्य एवं रंगमंच की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
समाजी : सुमिरन
आहो गननायक, आहो गननायक देवता।
सुमिरन में होखऽ ना सहाय, आहो गननायक देवता।
शंकर सुवन भवानी के नन्दन, आहो गननायक देवता।
लडुवा के भोगवा बा तोहार, आहो गननायक देवता।
हथिया के सूँड़वा पवलऽमूस के सवरिया,
मानुस शरीरवा बा तोहार, आहो गननायक देवता।
सुमिरन में होखऽना सहाय, आहो गननायक देवता।
सूत्रधार : दूर-दूर से पधारे दरसक देवता लोगन को बारा-बार परनाम। आज आप सब नाच-तमासा देखे खातिर पधारे हैं। नाच-तमासा से दुखी मन को सुख मिलता है। अगर देखनिहार की ई सुख मिल जावे, तो नाच-तमासा वाले लोगन की मेहनत सुफल। पर एक अरज है हमारी कि...ई पल का सुख...छिन भर की हँसी...मायाजाल है।
[पारम्परिक निरगुन]
एहिजा बइठल ठग दुकानदार रे अनाड़ी मनवा।।
दिन देख चलिह ऽरतिया बितरहऽ तुहूँ जाग।
डेगे-डेगे चोर-बटमार रे अनाड़ी मनवा।।
तब गाऊ अमली के गाथा।।
चित दे सुनहु अमली के गाथा।।
[बुधिया कुछ औरतों के साथ बेटा और बहू के स्वागत की रस्म कर रही है। सूत्रधार सहित सारे समाजी भी इस समूहन-दृश्य में शामिल होते हैं और गायन में साथ देते हैं।]
विवाह-गीत
आवेले कवन दुलहा बहू लेहले डोलिया हे।
आवेले रमेसर बाबू हथिया से घोड़वा है,
आवेले रमेसर दुलहा बहू लेहले डोलिया हे।
पहिरीं ना बुधिया माई इयरी से पियरी है,
बहुआ परिछीं घरे मंगल गावहु हे।
सासऽ के अँखियाँ लागेली मधुमखिया हे,
निरखि-निरखि बिहँसे बहू रसरंगिलिया हे।
समाजी एक : भाई ! खुशी-खुशी विवाह निबट गया। कनिया घर आ गई अउर किस्सा खत्म हो गया ?
सूत्रधार : ना भाई, किस्सा तो अब चालू हुआ है।
समाजी दो : तो आगे का किस्सा कवन बयान करेगा ?
सूत्रधार : सब लोग मिल-जुलकर करेंगे भाई। एतनी बड़ी, एतनी भारी जिनगी का किस्सा अकेले हमरे बस का ना है।...तो भाई दरसक देवता लोग...! दिन बीता...मास बीते...बीत गया विवाह का उछाह। धतूरे के फूल जइसी मदमाती जवानी का नशा उतरते देर ना लगी। विवाह के बाद नयका जोड़े की देह फूलती-फलती है...लहराती है खेत की जवान फसल की तरह। पर रमेसर-अमली के साथ अइसा कुछ भी न हुआ। जइसी सूखी-कँटीली जिनगी पहिले थी, वइसी ही रही। साँच कहें तो...।
समाजी एक : अरे भाई, खाली किस्सा-कथा सुनाओगे कि आगे भी दिखाओगे ?
समाजी दो : गप्प में सगरी रात बीत गई। जल्दी करो, जल्दी।
सूत्रधार : दिखा रहे हैं भाई।
समाजी एक : अरे तुम तो बस गपियाए चले जा रहे हो।
सूत्रधार : लो भइया, देखो।
[मंच के एक भाग में प्रकाश होता है। अमली जाँता से अन्य पीस रही है। थोड़ी
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