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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


हाँ, मैं माँ से एक बात अकसर दोहराती रहती हूँ, 'उसे बालों के इतने-इतने रिबन ख़रीद देने के बजाय रबड़-पेन्सिल ख़रीद दिया करो, इतने-इतने चॉकलेट-आइसक्रीम न दिला कर, किताबें वगैरह दिया करो। पिछली बार मैंने उसके जन्मदिन पर सुकुमार राय का समग्र दिया था, उसने छू कर भी नहीं देखा। सेतु-सेवा को पास बिठा कर, मैंने ही उन दोनों को छह-सात कहानियाँ पढ़-पढ़ कर सुनायीं, उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है।'

मैंने देखा है, इन किताबों से ज़्यादा उन्हें और-और कामों में दिलचस्पी है। माँ जब नमाज़ पढ़ कर उठ जाती है, वे दोनों जानामाज़ पर बैठ कर दुरूद रटती रहती हैं। मैं अकसर उन पर डाँट-डपट करती रहती हूँ। उनसे कहती हूँ–'गणित के दो सवाल देती हूँ या कोई निबन्ध लिखने को देती हूँ।

तुम दोनों फटाफट सवाल हल कर डालो या निबन्ध लिख कर मुझे दिखाओ।' लिखने-पढ़ने के बजाय, खेल-कूद, नमाज़, आलतू-फ़ालतू विषयों में उनकी दिलचस्पी ज़्यादा है! डाँट-डपट न की जाये, तो उनका सर्वनाश निश्चित है।

सेतु-सेवा मेरी जुड़वाँ बहनें हैं। माँ उन दोनों को एक जैसे कपड़े पहनाती थीं, एक जैसे सजाती थीं और दोनों को अपने अग़ल-बग़ल ले कर घूमने-फिरने निकलती थीं। लोग बाग पहचान नहीं पाते थे कि कौन सेवा है, कौन सेतु और तब माँ खूब मज़ा लेती थीं। वे समझाने लगती थीं-'यह...जिसकी नाक के नीचे तिल है, वह सेतु है और जिसके तिल नहीं है, वह सेवा है।' उन दोनों की उम्र दस वर्ष है! मेरे जन्म के नौ वर्ष बाद, सेतु-सेवा पैदा हुई थीं। उधर, भाई मुझसे पाँच साल बड़े थे। जब मैं जरा-जरा करके बड़ी हो रही थी. मेरे अब्ब ने सोचा कि और एक बेटा हो जाये. तो घर भर उठेगा।

'हाँ, और एक बेटा हो जाये, तो भला होता-' यह बात, बहुतेरे नाते-रिश्तेदार भी कहते थे।

वे लोग समझाने पर भी उतर आते थे, ‘फ़र्ज़ करो, फ़रहाद को अगर कुछ हो जाये, तो ख़ानदान में कोई चिराग़ जलाने वाला नहीं बचेगा। सावधान कभी मार नहीं खाता। ऐसा करो. एक लड़का गोद ले ही लो।'

मेरे जन्म के नौ वर्ष बाद, माँ गर्भवती हुईं और अब्बू तथा सभी नाते-रिश्तेदारों का सपना धूल में मिलाते हुए, माँ ने एक नहीं, दो-दो कन्या-सन्तानों को जन्म दे डाला। उन दोनों का कोई ख़ास आदर-जतन नहीं करता था।

माँ मुझे ही बुला-बुला कर कहतीं, 'ले, यह कथरी ज़रा धूप में डाल आ। फ़ीडर में दूध भर दे। ज़रा इसे गोद में ले ले-'

मैं उनकी सारी छुटपुट फर्माइशें पूरा करने में जुटी रहती थी। ना, मैं कभी खीजती नहीं थी, बल्कि दो-दो गुड़िया जैसी सोनामणि पर मुझे बेहद प्यार आता था।

मैं तो माँ से भी अकसर पूछती रहती थी, 'अब्बू तो इन्हें एक बार भी गोद में नहीं उठाते, क्यों, माँ, ये दोनों लड़की हैं, इसलिए?'

माँ मेरा सवाल टाल जाती थीं।

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