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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


'अरे, नहीं री, बहुत नान्ही-नान्ही हैं न! जरा बड़ी हो जाये, बाद में उठायेंगे।' माँ जवाब देती थीं।

'अब्बू क्या मुझे भी गोद में नहीं लेते थे?'

'लेते क्यों नहीं थे?' 'मैं भी तो लड़की थी, इसलिए?'

'नहीं री, तू तो पहलौठी की बेटी थी। तुझसे पहले, तेरा भाई, इस दुनिया में आ चुका था।' माँ मुझे आश्वस्त करती हुई कहती थीं, 'तुझे गोद में नहीं लेते थे, यह तू क्या कहती है? तेरा तो वे बेहद लाड़ करते थे। कहते थे-यह तो मेरी माँ है! इसकी सूरत बिल्कुल मेरी तरह है।'

मैंने लम्बी उसाँसें भर कर कहा, 'शुक्र है, मैं बच गयी। इसलिए बच गयी, क्योंकि मुझसे पहले, एक बेटा उन्हें मिल चुका था।'

मैं सब समझती थी। मेरे उच्च शिक्षित अब्बू भी मन-ही-मन एक बेटे की कामना करते थे। बेटे की उम्मीद में, कोख तैयार की, लेकिन अजमेर शाहजलाल को मत्था टेक कर जब लौटे और देखा कि एक नहीं, दो-दो कन्या-सन्तान का आगमन हुआ है, तो दिल भला बर्दाश्त कर पाता? मेरे अब्बू भी नहीं सह पाये। इसलिए उन्होंने निर्लिप्त भाव से, लोकखबावे के लिए सेतु-सेवा के प्रति, सिर्फ़ लोक-दिखावे की फ़र्ज-अदायगी के अलावा, और कुछ नहीं किया।

भाई लौट आये हैं। जो सोचा गया था, वही हुआ। साथ में तुलसी! तुलसी भाई के कमरे में चुपचाप बैठी रही। मुँह में मानो जुबान ही न हो। भाई को जो भी मिला, उससे ही कहते रहे, 'हिन्दू है, तो क्या हुआ? रूमू तो मुसलमान थी, उसने क्या करतूत की? मुसलमान हो, तो इन्सान बेहद भला होता है और हिन्दू हो, तो बुरा, यह बात सच नहीं है।'

इतने सारे तर्क देने के बावजूद भाई माँ को पिघला नहीं पाये। मैं और क्या कहती? इसमें मेरा टाँग अड़ाना सही नहीं होगा, क्योंकि दो-एक बार मैंने भी उन्हें समझाने की कोशिश की।

'अब, मान जाओ। क़बूल कर लो। तुलसी तो भली लड़की है-'

माँ तले हुए बैंगन की तरह छन्न से जल उठी, 'तुम अपना काम करो, जाओ! यह सब समझने की, अभी तुम्हारी उम्र नहीं हुई।'

सेतु-सेवा को पढ़ने बिठा कर, मैं भी एक किताब ले कर बैठ गयी।

मैंने उन दोनों को डपट दिया, 'चुपचाप पढ़ाई कर! ख़बरदार, मुँह से ज़रा भी आवाज़ निकली, तो...'

सेतु-सेवा बार-बार मुझसे पूछती रहीं, 'तुलसी'दी को हम लोग क्या अब भाभी बुलायेंगे?'

'हाँ-' मैंने जवाब दिया।

अब्बू ने आदमी भेज कर ख़ाला, मामा, फूफू लोगों को फ़ौरन चले आने को कहा यानी जहाँ, जो भी नाते-रिश्तेदार हैं, सब चले आयें। शाम तक सभी लोग आ पहुँचे। भाई बिना नहाये-खाये, कमरे का दरवाज़ा बन्द किये बैठे रहे। घर में कहीं, कोई मौजूद है, ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था। माँ ने तो बिस्तर पकड़ लिया। अब्बू ड्रॉइंगरूम में सोफे पर ख़ामोश बैठे पैर नचा रहे थे। समूचे कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ!

मैं शतरंज बिछा कर बैठ गयी।

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