उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
सबने बारी-बारी से कहा, 'लड़की अगर मुसलमान नहीं हुई, तो यह निक़ाह तो क़बूल नहीं किया जायेगा।'
अब्बू शायद अब तक अपना गुस्सा संयत करने में लगे हुए थे, अब उनके संयम का बाँध टूट गया।
अचानक वे उठे और भाई का हाथ पकड़कर, एक झटके में घसीटते हुए, दरवाज़े की तरफ़ ले गये और कहा, 'गेट आउट! गेट आउट फ्रॉम माइ हाउस! निकलो मेरे घर से।'
उन्होंने तुलसी को भी जाने का इशारा किया।
अब्बू गुस्से से फट पड़े थे। आँखें सुर्ख लाल! दाँत पीसते हुए।
अब्बू की ऐसी मूरत मैंने कम ही देखी है।
तुलसी डर से थर-थर काँप रही थी।
घर के सभी लोग इस कोशिश में लगे हुए थे कि किसी तरह समस्या का समाधान हो जाये। उन्होंने अब्बू को रोकना चाहा। जेठूमणि, फूफी, ख़ाला, मामा-सभी लोग! नहीं, अब्बू ने किसी की बात नहीं मानी।
भाई तुलसी को ले कर, घर से बाहर निकल गये। सुबह आये थे। इस घर में दिन भर उनके लिए आहार नहीं जुटा। दिन भर उपासी देह लिये, पारिवारिक अदालत के कठघरे में खड़े हो कर, उन्होंने पराजय स्वीकार की और निर्वासन में चले गये। मुझे बेहद तकलीफ़ हुई। मुझे लगा, घर के सभी लोग भयंकर निर्मम और पत्थर दिल हैं।
मंसूर को फ़ोन करना, किसी हाल भी सम्भव नहीं हो पा रहा है।
ख़ाला के स्कूल पहुँच जाऊँ, लेकिन ख़ाला कहीं नाराज़ न हो जायें, यह सोचकर मेरा ख़ाला के स्कूल जाना भी नहीं हो पाया। खाला के मन में यह ख़याल आ सकता है कि बड़ा भाई घर छोड़ कर चला गया है। कहाँ है, किस हाल में है, यह भी ख़बर नहीं है। ऐसी हालत में, अगर बेहद ज़रूरी न हो, तो मुझे किसी को भी फ़ोन नहीं करना चाहिए। इन्हीं सब कारणों से सोच रही हूँ, उसे ख़त ही लिख भेजूं।
लेकिन मेरा ख़त क्या मंसूर के हाथों तक पहुँचेगा? असल में, खत-वत के मामले में, मुझे गुस्सा आने लगा है। सच तो यह है कि मैंने उसे ढेर-ढेर लिखा है। अब नये सिरे से वह सब लिखना, मुझे अच्छा नहीं लगता। वैसे भी ख़तों के प्रति मेरा जो प्रचण्ड आवेग था, वह अब नहीं रहा। एक बार उससे छोटी-सी मुलाक़ात और बातचीत के बाद, मेरे मन में उससे मिलने और बातें करने का चाव बेतरह बढ़ गया है।
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