उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
बल्कि तुलसी ही आगे बढ़ी और अब्बू के सामने उकडूं हो कर बैठ गयी और फूट-फूट कर रो पड़ी।
उसने अस्फुट आवाज़ में कहा, 'काका बाबू, माफ़ कर दीजिए।'
मगर काका बाबू कहाँ माफ़ी देने वाले।
आख़िरकार फ़ैसला यह हुआ कि तुलसी को उसके घर छोड़ आया जाये। फ़रहाद अपनी पढ़ाई-लिखाई पूरी करके, अपने पैरों पर खड़ा हो। उसके बाद, तुलसी को इस घर में लाया जायेगा।
भाई उन लोगों की यह बात मानने को राजी नहीं हुए।
उन्होंने कहा, 'इससे तो बेहतर है कि तुलसी को ले कर, मैं घर छोड़ कर चला जाऊँ और कहीं नौकरी-चाकरी करके पेट भरूँ।'
बस, चीख-चिल्लाहट, चीत्कार शुरू हो गयी।
'नौकरी-चाकरी करने की कौन-सी योग्यता है तुममें, ज़रा सुनूँ? अरे, पागल भी अपना भला-बुरा समझता है। तुम्हारे अब्बू ने जो कहा, तुम्हारे भले के लिए ही तो कहा। चलो, ठीक है, शादी जब कर ही ली है, सब कुछ का एक नियम भी तो होता है। तुम्हारे अब्बू यही चाहते हैं कि...तुम दोनों की शादी की उम्र, अभी नहीं हुई और बीवी को ले कर, उसके बाप के होटल में आख़िर कितने दिन खाओगे? आखिर अपने पाँवों पर खड़ा होना है या नहीं? इसलिए, बेहतर यही है कि बीवी बग़ल के ही मकान में रहे। तुम पहले अपने पाँव पर खड़े हो, उसके बाद घर-गृहस्थी शुरू करना। इसके अलावा, ब्याह भी आखिर किस नियम से किया है, हमारे लिये यह जानना भी तो ज़रूरी है। काज़ी के दफ्तर में या कोर्ट में?'
'कोर्ट में!' भाई का जवाब।
'बीवी का नाम क्या रखा गया है?'
'नाम कोई एक रखा गया था, पाँच मिनट के लिए। पाँच मिनट बाद असली नाम पर लौट आया गया। उसका नाम तुलसी था, तुलसी ही है-तुलसी रानी चक्रवर्ती।'
'मतलब? वह मुसलमान नहीं हुई?'
'होना पड़ता है, इसलिए हुई। लेकिन निग़ाह के काग़ज़ पर ही, असल में नहीं हुई।
'क्यों?'
'मुसलमान होने की ज़रूरत क्या है?'
सब लोग एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे।
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