उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मंसूर से फ़ोन पर सम्पर्क करने की एक और राह मैंने खोज निकाली। रुकैया हॉल के टेलीफ़ोन-बॉक्स से फ़ोन करना, फ़ोन करने के लिए चार चवन्नी चाहिए। आजकल इस-उस से चवन्नी इकट्ठा करना, मेरा बड़ा काम बन गया है! एक दिन तो पूरे पन्द्रह मिनट की कोशिश के बाद मुझे उसकी लाइन मिली।
'हलो...' कहते ही, दूसरी छोर से किसी औरत की आवाज़ सुनायी दी।
'कौन बोल रहा है?' उस नारी-कण्ठ ने पूछा।
'जी, मेरा नाम शीला है-' मेरा विनीत उत्तर!
'किससे बात करनी है?'
'जी, मंसूर से!'
मंसूर चाहिए-यह सोचते हुए मुझे बेहद भला लगा। मंसूर तो चाहिए ही चाहिए। भला क्यों न चाहूँ? मंसूर को न चाहने को क्या है?
'आप कहाँ से बोल रही हैं?' उधर से पूछा गया।
‘रुकैया हॉल से।'
'मंसूर घर पर नहीं है।'
'कब मिलेगा?'
'रात को।'
'रात को?'
उधर से फ़ोन रख देने की आवाज़ आयी। यह भी तो सम्भव नहीं था कि मैं कोई नम्बर दे देती और वह मुझे बाद में फ़ोन कर लेता। असल में, मेरी तक़दीर ही बुरी है। तक़दीर बुरी न होती, तो रूपा, फ़िरोज़ा, शिप्रा वगैरह, जहाँ मेरी नज़रों के सामने ही जम कर प्रेम कर रही हैं, मैं बस, मुँह बाये उन लोगों को देखती रहती हूँ या घास चबाती रहती हूँ।
उस दिन मैं लाइब्रेरी-प्रांगण में बैठी हुई थी।
एक छोकरा मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया।
'आपसे बात करनी है-'
मेरे साथ पारुल नामक एक सहपाठी भी थी।
मैं उठ खड़ी हुई, 'हाँ, कहिये?'
'मैं पोलिटिकल साइंस का छात्र हूँ! ज़रा इधर आयेंगी?'
यानी पारुल न सुन पाये, इसलिए ज़रा दूर जाना होगा।
मैं चली गयी।
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