उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
लड़के ने कहा, 'मेरा नाम जहाँगीर है। मैं आपके साथ दोस्ती करना चाहता हूँ-'
यह सुन कर मुझे गुस्सा आ गया।
मैंने तमक कर कहा, 'देखिये, मेरा एक दोस्त है। मंसूर नाम है! मुझे किसी और दोस्त की ज़रूरत नहीं है।' इतना कह कर मैं लौट पड़ी।
'चाय की तलब लगी है। चल, दो कप हो जाये। चलता है?'
पारुल ने भी सहमति जतायी।
चाय पीते-पीते मैं पारुल के इश्क के किस्से सुनती रही।
वह लड़का, उसका ममेरा भाई था! इंजीनियर! पता चला, वह दो बार उस को चूम भी चुका है। कहीं भी घर खाली पाता है, तो लिपट कर चूम लेता है।
'चुम्बन लेते हुए कैसा लगता है, रे?'
पारुल हँस पड़ी, 'जिसने कभी चुम्बन न लिया हो, उसे इसका स्वाद कभी कह कर नहीं समझाया जा सकता।'
एक बार फिर, अपने बेहद ख़ाली-खाली होने का एहसास हो आया। अच्छा, मंसूर जब पहली बार मुझे चूमेगा, तो क्या वह हौले से मुझे अपनी बाँहों में लपेट भी लेगा? नहीं, यूँ लपेट लिया जाना मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मुझे सबसे ज़्यादा तब अच्छा लगेगा, अगर वह मेरी हथेली की पीठ पर चुम्बन आँके।
उसके होठों का स्पर्श महसूस करते रहने के लिए, मैं बहुत दिनों तक अपना हाथ ही नहीं धोऊँगी। आह! कितना आनन्द आयेगा। मुझे इतना आनन्द क्यों होगा? मंसूर से अगर किसी निर्जन मैदान में मेरी भेंट हो, मैं लाज से सिर झुकाये-झुकाये खड़ी रहूँगी।
मंसूर मुझे पास बुलायेगा, 'आओ।'
मुमकिन है, मैं क़रीब आ बैठू! आँखें झुकी-झुकी! छाती धड़कती हुई! मंसूर की गहरी-गहरी, भरी-भरी आवाज़ मुझे गहरे तक छू जायेगी।
वह कहेगा, 'आओ, क़रीब आओ! शर्म कैसी? तुम मुझसे लजा क्यों रही हो? मैं क्या तुम्हारा सबसे ज़्यादा अपना...ज़्यादा सगा नहीं हूँ? बताओ?'
वह मुझे अपने क़रीब बिठा लेगा और कहेगा, 'चेहरा ऊपर करो, सोना लड़की!'
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