उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मैं चेहरा उठाऊँगी। मंसूर मुझे अपलक निहारता रहेगा और फिर घास पर लेट जाएगा। अचानक वह गा उठेगा- 'मेरी एक ओर सिर्फ तुम, दुनिया दूसरी ओर, मैंने थाम लिया तुम्हारा ही छोर!'
पुराना गाना है, फिर भी सुनना अच्छा लगेगा।
मंसूर मुझसे पूछेगा, 'तुम्हारी हथेलियाँ ज़रा छू लूँ?'
मैं सिर हिला कर सहमति जताऊँगी।
मंसूर मेरी उँगलियों से खेलते हुए कहेगा, ‘सच तो यह है कि अर्से तक मैंने तुम्हें बहुत-बहुत तकलीफ़ दी है, पता है क्यों? तुम्हें तकलीफ़ों की आग में तपाता रहा, ताकि तुम तप-तप कर सोना बन जाओ।'
यह कहते-कहते, वह मेरी हथेली, अपने होठों तक ले जायेगा अचानक हथेली की पीठ चूम लेगा। बस, इतना भर ही! मैं अपना हाथ हटा लूँगी और उसके बचपन के किस्से सुनती रहूँगी। वह बतायेगा...वह अपने गाँव की कंस नदी में, अपनी नाव ले कर, दूर. ..काफ़ी दूर पहुँच जाता था। शाम ढले लौटता था।...भुतहे बांस-झाड़ में भूत देखने के लिए, वह आधी-आधी रात को खड़ा रहता था। फ़ज़ की नमाज़ के समय, वह घर लौटता था। अपने हम उम्र साथियों को बुला-बुला कर बताता था-'सुनो, तुम सब सुनो, दुनिया में भूत-बूत कुछ नहीं है।'
यह सब सुनते हुए मुझे भला-भला लगेगा।
मंसूर कहेगा, 'चलो, अब तुम सुनाओ, अपने छुटपन की कोई कहानी-'
मैं उसे तलैया में अपने डूब जाने की कहानी सुनाऊँगी। '..जब मैं नौ साल की थी, नाना के घर की तलैया में कमल का एक फूल खिला था। उसे तोड़ लाने के लिए मैं तलैया में उतरी थी। अचानक, मैंने देखा, मैं डूब रही हूँ। डूब रही हूँ, उतरा रही हूँ,
हला-हला पानी निगल रही हूँ, चीख रही हूँ, फिर पानी निगल रही हूँ-डूबती जा रही हूँ, डूबती जा रही हूँ, मगर कोई मुझे बचाने नहीं आया। मेरे हाथ कमल तक नहीं पहुंच पाये घाट के किनारे भी मुझसे दूर! उस वक़्त, उस तलैया से मुझे संन्यासी मामा ने निकाला था। मैं मरते-मरते बची...।'
मंसूर और मैं, अपने-अपने बचपन, अपने कैशौर्य की गपशप में डूबे रहेंगे और रात उतर आयेगी। अपने-अपने घर लौटने का वक़्त हो आयेगा, फिर भी हमें होश नहीं आयेगा...।
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