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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब उसे मेरे अलावा और किसी चीज़ का होश नहीं रहेगा, मेरे अलावा उसे और कुछ समझ नहीं आयेगा। यह जगत-संसार उसके लिए तुच्छ हो जायेगा। मेरे लिए, इस शीला के लिए, मंसूर मेरा मंसूर, एक दुनिया रच देगा!

मंसूर शायद ज़्यादा बातें नहीं करता। कम बोलने वाले इन्सान में, एक अलग-सा सौन्दर्य होता है! मैं भी बहुत ज़्यादा बकबक करती हूँ, ऐसी बात नहीं है। लेकिन मैं नाप-तौल कर भी बात नहीं करती। मेरा जो बोलने का मन होता है, मेरे मन में जो आता है, वह मैं अपने क़रीबी इन्सान से छिपा कर भी नहीं रख पाती। मंसूर को बिल्कुल अपने की तरह पाने के लिए, मेरी जो यह अविराम कोशिश है, कोई भी शायद इसे निरा पागलपन कहेगा। लेकिन, किसी लड़की से प्यार करने के लिए मर्द के पागलपन को तो ठीक मान लिया जाता है, तो अगर लड़की पागल हो गयी है, तो . ग़लत क्या है? हमेशा मर्द को ही आगे बढ़ना होगा, औरत आगे नहीं बढ़ सकती? अगर वह चाहे. तो अलबत बढ़ सकती है। लेकिन ऐसी इच्छा, कोई लड़की करती ही नहीं। मैं बैठी रहूँगी, प्यार करने के लिए, कोई नौजवान मुझे पसन्द करेगा। अच्छा, जो नौजवान मुझसे प्रेम-निवेदन करेगा, वह अगर मुझे पसन्द न आये, तो? ठीक है, मैं उसे लौटा दूंगी। कहूँगी-देखो, भइया, तुमसे प्रेम करने की मेरे मन में क़तई कोई चाहे नहीं है। लेकिन उसके बाद? फिर उसी तरह बैठे-बैठे, किसी को पसन्द आने का इन्तज़ार! चलो, फिर किसी ने पसन्द कर लिया! लेकिन, फिर वही समस्या! मुझे वह बिल्कुल पसन्द नहीं आता।

बस, इसी तरह उम्र बढ़ती जायेगी। मारे भय, भीति और चिन्ता में डूबी-डूबी, मैं आँख-कान बन्द करके, किसी कुपात्र के गले में जयमाला डाल दूंगी। आसमान की तरफ़ देखते-देखते, मैं उससे बातें निपटाऊँगी प्यार निपटाऊँगी! और नहीं तो क्या? फ़र्ज़ करो, चेहरे की तरफ़ देखने का उपाय न हो, तो? चेहरे जैसा चेहरा न हो, तो क्या उसकी तरफ़ देखा जा सकता है? तब क्या शौकिया ही आँखों के रोग को दावत देनी होगी?

मंसूर मेरे सपनों का पुरुष है। मैं अल्लाह या भगवान में विश्वास नहीं करती। अगर करती होती, तो यह सोच सकती थी कि ऊपर वाले ने हमें एक-दूसरे के लिए ही बनाया है। अच्छा, मंसूर के साथ क्या मैं बे-हद मिसफिट हूँ? लेकिन सपने देखते-देखते, अब मेरी यह हालत हो गयी है कि मंसूर की बग़ल में अपने अलावा, मैं किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकती। मंसूर बातें कम करता है। हर वक़्त, हर बात के सहारे, हर कहानी समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मंसूर के भी मामले में होट या आँखें पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आँखों की एक अपनी भाषा होती है। वह भाषा निःशब्दता के अक्षरों से तैयार की गयी है। यह अक्षर-ज्ञान अगर हो, तो मंसूर को पढ़ा जा सकता है। मुझमें वह ज्ञान न हो, तो मेरा चलेगा कैसे? मैं नयी छात्रा हूँ। इसलिए क्या मैं उस भाषा को समझने के लिए, तप नहीं करूँगी? आँखें तो धूप के चश्मे तले ढंकी होती हैं। चश्मे की आड़ से इस-उस की आँखें मुझे देखती रहती हैं। देख-देख कर मुग्ध होती रहती हैं। उन आँखों के सागर में ज़रूर प्यार की कश्ती बहती रहती है। कोई-कोई इसी तरह ख़ामोशी से प्यार करता है। मसलन भाई! भाई क्या जोर-शोर से डंका पीट-पीट कर तुलसी से प्यार करते थे।

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