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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मंसूर छह फ़ीट लम्बा! काफ़ी कुछ अमिताभ बच्चन या अफ़ज़ल हुसैन जैसा। लेकिन चेहरे की गढ़न अफ़ज़ल-अमिताभ, दोनों के ही मुक़ाबले काफ़ी खूबसूरत! बाल तो इतने घने-काले कि देखते ही उनमें हाथ डुबा देने का मन करे। सुतवां, तीखी नाक! आँखें जैसे बोलती हुईं! काली, मोहक भौंहें! होठ गुलाबी! मूंछे न मोटी, न पतली! बस, बीच-बीच की! वह हजामत भी बनाता है! गाल हल्के-हल्के नीलाभ! मैंने चोरी-छिपे गौर किया था, उसके गालों पर नीलाभ छाया है! वह देखने में क्या थोड़ा-बहुत ग्रिगोरी पेक जैसा उसके होटों में जादू है! सचमुच का जादू! वह जादू मुझे पागल करता है। उसकी छाती पर क्या रोमावली है? शर्ट के दो बटन खुले रहते हैं। हाँ, हाँ, रोमावली से भरे हैं। पता नहीं, उन रोमावली का मैं क्या करूँगी। लेकिन 'सुन्दर' कभी एक संज्ञा, मैंने जाने कब, कहाँ से प्राप्त की है। शायद अब्बू या भाई के चेहरे से, मंसूर बिल्कुल वैसा ही! जैसा पत्र-पत्रिकाओं में हीरो लोग दिखते हैं, मेरे लिए ‘सुन्दर' की संज्ञा बिल्कुल वैसी ही है। खैर, मंसूर की नाक-आँख-सूरत का मुझे क्या करना है? हाँ, बस, आँखें तृप्त हो जायेंगी। ज़रूरत है, मन सुन्दर हो। अगर मन सुन्दर हो, तो सब कुछ मिल जाता है। मंसूर अपने प्यार से सिर्फ़ मुझे ही क्यों, समूची दुनिया जीत सकता है। मुझे तो वह पहले ही जीत चुका है। लेकिन मैंने क्या मंसूर को जीत लिया है? हालाँकि मेरा मन कैसा-कैसा तो होता रहता है, फिर भी कहता है-हाँ, जीत लिया है। मंसूर स्मार्ट लड़का है। उसकी जगमगाहट ही बिल्कुल अलंग किस्म की है। यह जगमगाहट ही शायद सच्ची रोशनी है। मेरी हथेलियाँ, अपने हाथ में ले कर, वह मेरी उँगलियों से खेलता रहता है। लेकिन, मंसूर की उँगलियाँ देख कर, मुझे ऐसा महसूस होता है, जैसे उँगलियाँ, खेल के बहाने, मुझे प्यार कर रही हैं। उँगलियों में प्यार पहुँचाने की इतनी ज़बर्दस्त ताक़त होती है, अगर मैंने मंसूर की उँगलियों का स्पर्श न किया होता. तो मझे पता ही नहीं चलता। मंसर अपनी उस हल्की-सी छुअन से, मुझे पिघला कर यूँ मोम कर देता है, पता नहीं, उस वक़्त मेरा चेहरा कैसा नज़र आता होगा। जैसी मैं हूँ, वैसी ही दिखती हूँ न! उस वक़्त की मेरी सूरत देख कर माँ, अब्बू, भाई या तुलसी, मुझे पहचान तो लेंगे न कि मैं, मैं ही हूँ?

किसी को नहीं मालूम कि आज मैं मंसूर से मिलने आयी हूँ। मैं किसी को बताऊँगी भी नहीं। सिर्फ़ चुपके-चुपके उसका प्यार, अपने दिल में उतार लूँगी। अभिसारिका हूँ। आ-ह!

गाड़ी किस तरफ़ जा रही है, मेरे यह पूछने पर, मंसूर ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया-'गुलशन की तरफ़!'

गुलशन में ही तो मंसूर का मकान है। यानी वह ज़रूर अपने घर जा रहा है। अपने घर ले जा कर, वह ज़रूर अपने माँ-बाप, भाई-बहनों से मेरा परिचय करायेगा। यानी मंसूर सच ही, गम्भीर रूप से इस रिश्ते के बारे में सोच रहा है। उस दिन, जब उस अन्दाज़ में, उसकी आँखों ने मुझे देखा था, शायद तभी...उसी पल मैं उसकी आँखों में बस गयी थी। पल भर के लिए निग़ाहें मिलते ही, कितना कुछ हो जाता है। किसी-किसी के साथ ऐसा भी तो होता है कि ज़िन्दगी भर आँखें मिली रहें और कुछ भी नहीं होता।

जिसके साथ ऐसा होता है, वह एकाध पल में ही हो जाता है। फ़िल्मों में तो ऐसा ही होता है।

***

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