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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


फ़र्ज़ करो, मंसूर अगर यह ज़िद कर बैठे, 'देखो, अब मेरी शादी की उम्र हुई। अगर अभी शादी नहीं की, तो नहीं चलेगा। तुम अपने को राजी कराओ।'

अपने अब्बू के सामने, यह प्रस्ताव रखना, मेरे लिए क्या सम्भव होगा? वैसे भी, बात मैं क्यों करूँ? मंसूर के घरवालों को ही पैग़ाम भेजना होगा। लेकिन अब्बू साफ़ मना कर देंगे, यह बात मैं आँख मूंद कर बता सकती हूँ। लेकिन, क्या पता? यह बात भी कैसे कहूँ? अब्बू तो भाई की शादी भी क़बूल करने वाले नहीं थे। मुझे भी उन्होंने ठीक ढंग से लिखाई-पढ़ाई करने की हिदायत दी है, ताकि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ। अब, अगर इसका उलटा हुआ, तो वे मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, उनका यह अक्खड़पन, शायद न रहे, जब मंसूर जैसा अमीरज़ादा, सुशिक्षित, सुदर्शन, सुपुरुष, मुझसे शादी करने का प्रस्ताव देगा। तब तो अब्बू और जितने भी नाते-रिश्तेदार हैं, सब हो-हल्ला मचाते हुए, पूरे जोश से शादी के इन्तज़ाम में टूट पड़ेंगे। मेरा रुचि-बोध देख कर, सब ताज्जुब में पड़ जायेंगे। भला कोई रूपसी या हूर-परी तक, मंसूर जैसे नायक-गायक को अपनी मुट्ठी में लाने की कलपना कर सकती हैं? नहीं, आसान नहीं है! बिल्कुल आसान नहीं है। तपस्या किये बिना मंसूर को पाना असम्भव है। मंसूर काफ़ी हद तक ईश्वर जैसा है। मेरी तीखी चाह, प्रबल आकांक्षा, मेरी एकाग्र तपस्या ने ही मुझे मंसूर से ला मिलाया है। आख़िर प्रकृति का भी तो कोई इन्साफ़ होता है। इन्साफ़ ज़रूर होता है। अल्लाह, खुदा, भगवान, ईश्वर भले एक-आँख वाले हों, पक्षपात करें, प्रकृति ऐसा नहीं करती। प्रकृति सभी इन्सानों को बराबरी की नज़र से देखती है। अगर यह सवाल उठे, तो शायद सभी यही कहेंगे कि बाढ़, आँधी-तूफ़ान, रोग-शोक, बुढ़ापे से, विचारे ग़रीब लोग ही मरते हैं। अमीर नहीं मरते। लेकिन प्रकृति इस मामले में भी कोई असमानता नहीं बरतती। यह तो इन्सान ही है, जिसने विषमता का इन्तज़ाम कर रखा है, इसीलिए कोई मर जाता है, कोई नहीं मरता। अमीर लोगों का घर-मकान सख्त-पुख्ता होता है। अमीरों के पास डॉक्टरों को खरीदने के लिए दौलत होती है। लेकिन गरीब ? ज़ोर की आँधी-तूफ़ान में ही उनकी मडैया की छप्पर-छादन तक उड़ जाती है। गरीबों में यह औक़ात नहीं होती कि वे डॉक्टर तक पहुँच सकें। अशिक्षा-कुशिक्षा-सब कुछ गरीबों को ही निगल जाती है।

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