उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
असल में, अब्बू से मैं जो कहना चाहती थी, वह मुझसे कहा ही नहीं गया। भाई को वापस ले आने की बात भी, मेरी जुबान से नहीं फूट सकी। अब्बू तो यह चाहते थे कि मैं भी किसी से इश्क़-मुहब्बत करके, कोई हादसा न कर डालूँ। लेकिन मंसूर को प्यार करना क्या अघटन या हादसा है? बेशक, नहीं! क्योंकि अब्बू अगर उसकी आर्थिक हालत के बारे में सोचें, तो मंसूर दौलतमंद पिता का बेटा है और अगर यह सवाल उठे कि लड़का पढा-लिखा. शिक्षित है या नहीं, तो वह लडका एम. ए. का इम्तहान देने वाला है और इसका मतलब है, वह शिक्षित है। देखने में कैसा है? भला-भला! स्वभाव-चरित्र कैसा है? वह तो बेशक़ बहुत भला है। भला न होता तो क्या गानों के कार्यक्रमों में शामिल होता? वह शरीफ़ लड़का है, तभी तो तुलसी ने कहा कि वह कमाल का अच्छा लड़का है। वह शरीफ़ और भला है, तभी तो मैं बस, उसे निहारती रहती हूँ। उसे देख कर कभी सीटी नहीं बजायी, कभी आँख नहीं मारी।
मेरी एक गुप्त डायरी है। दो वर्ष पहले, यह डायरी मुझे भाई ने दी थी। डायरी में लिखा था-'अपनी प्रिय छोटी बहन, शीला को! भाई! आजकल डायरी खोलते ही, पहले पन्ने पर नज़र पड़ते ही, मन बेतरह दुखी हो जाता है! सन्यासी मामा तो अपने लिए ही भर पेट आहार नहीं जुटा पाते, वे उन दोनों को क्या खिलाते होंगे? और उस कोठरी में उन दोनों के सोने के लिए, कहाँ जगह होगी। भाई मुझे अकसर ही छुटपुट चीजें उपहार दिया करते थे। एक बार, जीवनानन्द दास का काव्य संग्रह दिया था; पार्कर पेन भी दी थी और कहा था-'इससे तू कविता लिखा करना।' इसी तरह रंग-तलि खरीद कर दिया और कहा-'आसमान की तस्वीरें बनाया कर।' वैसे कविता लिखने का मुझे ज़्यादा चाव है। आजकल डायरी भी लिख रही हूँ। उसमें मंसूर की बातें ही ज़्यादा होती हैं।
मंसूर को मैंने फिर ख़त लिखा। ठीक ख़त भी नहीं, कविता-
तुम सकुशल तो हो, मेरी जान?
अच्छे तो हो, मेरे हरियल, सदाबहार?
मैंने तुम्हें कभी छू कर नहीं देखा,
सिर्फ आँखें मल-मल कर निरखती रही, तुम्हारा विराट क़द!
तुम हो प्राणवान इन्सान,
कितनी भी दूरी से तुम्हें किया जा सकता है प्यार!
अगर तुम मुझसे प्यार नहीं भी करते, मत करो।
मैं करती रहूँगी,
जब तक मेरे सीने में धड़कता है दिल!
मैं करती रहूँगी प्यार!
प्यार किये बिना, मेरी मुक्ति नहीं!
मेरी इस सीलनभरी कोठरी में,
तुम हो अंजुरी भर धूप,
जो आ लेटी है मेरे माथे पर!
मैं जाग उठी हूँ!
दीर्घ उन्नीस वर्षों की टूटी है नींद!
अब, तुम्हें अर्जित करना ही,
मेरा एकमात्र सपना!
इति,
शीला
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