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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मुझे ख़त लिखने के लिए मैंने पारुल के घर का ठिकाना दे दिया है। मैंने यह भी लिख दिया कि पारुल के नाम का बग़ल में एक तारा-चिह्न अंकित किया गया हो, तो यह समझ में आ जायेगा कि यह मेरा ख़त है। मैंने पारुल को भी समझा दिया है।

दिन के वक़्त फ़ोन करने से मंसूर मिलता नहीं, इसलिए यह कोशिश फ़िजूल थी। रात के वक़्त मेरा फ़ोन करना सम्भव नहीं है, इसलिए मैं ख़त के जवाब की ही प्रतीक्षा करती रही।

पारुल से मैं हर दिन पूछती थी, 'क्या? कुछ आया?'

पारुल होट बिचका कर जवाब दे देती थी, 'न्ना!'

एक दिन! दो दिन! तीन दिन! चार दिन! पूरे सात दिन गुज़र गये। ख़त नहीं आया। इधर ‘मंसूर' नाम, क्लास में बहुतेरे विद्यार्थी जान चुके थे। नादिरा ने ही यह ख़बर फैला दी थी कि शीला के प्रेमी का नाम मंसूर है। लड़का देखने में बेहद सुदर्शन है।

अब बकुल, मणि, रुबीना, लकी, मदिरा, मउमी वगैरह सभी लड़कियाँ मुझे छेड़ने लगी हैं-'मंसूर साहब की क्या ख़बर है?'

'दूल्हा भाई कैसे हैं?' 'यूँ डूब-डूब कर आख़िर कितने गैलन पानी ढकोल डाला, हम भी तो सुनें।'

यह सब फ़िकरे सुन कर मुझे लाज भी आती है और खुशी भी होती है।

मुझे ताज्जुब में डालते हुए, ग्यारहवें दिन, पारुल ने एक लिफ़ाफ़ा, मेरे किताब में लूंस दिया। उस वक़्त क्लास चल रही थी। वह आयी और मेरी बग़ल में बैठ गयी और यह काण्ड कर बैठी। मैं दत्तचित्त हो कर क्लास में लेक्चर सुनती रहूँ, मेरी किताव में एक पीला ख़त रख दिया जाये-यह देखने के बाद, मेरे लिये अपने मन को स्थिर रखना सम्भव नहीं था। मैंने वह किताब अपने और क़रीब खींच ली और वह लिफाफा खोल डाला। अन्दर से सफ़ेद काग़ज़ पर लिखा हुआ खूबसूरत-सा ख़त निकल आया।

ख़त में लिखा था-शीला, तुम्हारा ख़त पढ़कर बहोत अच्छा लगा। तुम मुझे प्यार करती हो। यह जान कर बेहद खुशी हुई। अब तुमसे मिलना ज़रूरी है। ऐसा करो, अगले शनिवार (तारीख 12) को दोपहर, साढ़े बारह बजे, क्रिसेन्ट लेक के किनारे आ जाओ। मेरे बदन पर सफ़ेद पर नीली धारीदार शर्ट, काली पैंट होगी और आँखों पर रेबॉन सनग्लास होगा। मेरे साथ लाल रंग की होण्डा सिविक कार होगी। गाड़ी का नम्बर है-1704!

इति,

मंसूर!

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