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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


'अरे, तुलसी, तू रो क्यों रही है? घर की याद आ रही है? ठीक है, कल मैं माँ से कह कर, तुझे, तेरे घर ले चलूंगी।'

मुझसे लिपट कर, तुलसी और ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी।

तुलसी क्या सचमुच सुखी है या सुखी होने का नाटक कर रही है, मेरे पल्ले नहीं पड़ा। जहाँ तक मेरी समझ में आया है, तुलसी को अपने सगे-सम्बन्धी याद आ रहे हैं।

मैंने उसे और कस कर अपनी छाती से लिपटा लिया और उसे तसल्ली देते हुए कहा, 'सुन, तुलसी, तू सिन्दूर लगा या कर, कलाई में शाँखा पहना कर। अपने माँ-बप्पा के पास जाया-आया कर! दुर्गा-पूजा आ रही है। तू पहले की तरह ही जश्न मनाना। सुन, तू उदास मत हो, तुलसी! मैं माँ को समझाऊँगी।'

तुलसी की रुलाई और तेज़ हो गयी।

तुलसी के लिए मुझे बेहद तकलीफ़ होती है। वैसे हर इन्सान के मन में थोड़ा-थोड़ा दुख बसा ही होता है। तुलसी महासुखी लगती थी, लेकिन उसकी रुलाई ने मुझे समझा दिया कि असल में वह सुखी नहीं है। इतना दुख-सुख मुझे बिल्कुल नहीं सुहाता। दुनिया के सभी लोग सुखी क्यों नहीं हो पाते? मैं ज़रूर सुखी होऊँगी, यह मुझे विश्वास है। मंसूर क्या कभी कोई ऐसी हरक़त करेगा, जो मुझे रुला दे या मुझे रोना पड़े? मुझे विश्वास नहीं होता।

मैं तुलसी को नीचे ले आयी।

'चल, मुँह-हाथ धो ले और लेटी रह। भाई आ जायें तो हम सब मिल कर चाय-मुरमुरों का नाश्ता करेंगे। ठीक है?'

भाई शाम के बाद लौटे। तुलसी के लिए वे लाल किनारेदार, हरे रंग की साड़ी ख़रीद कर लाये हैं। साड़ी देख कर, तुलसी खुश हो गई। शाम का दुख भूल कर, वह हम तीनों के लिए चाय बना लायी।

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