हास्य-व्यंग्य >> जिस्म जिस्म के लोग जिस्म जिस्म के लोगशाज़ी जमाँ
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जिस्म जिस्म के लोग
‘‘जब जिस्म सोचता, बोलता है तो जिस्म सुनता है।’’
‘‘आप तो बोलते भी हैं, सुनते भी हैं, लिखते भी हैं...’’
‘‘लिखता भी हूँ ?’’ मैंने कहा।
एक कम्पन, एक हरकत-सी हुई तुम्हारे जिस्म में - जैसे मेरी बात का जवाब दिया हो।
‘‘रूमानी शायर जिस्म पर भी जिस्म से लिखता है’’, मैंने कहा।
‘‘आप जिस्मानी शायर हैं !’’
‘जिस्म जिस्म के लोग’ बदलते हुए जिस्मों की आत्मकथा है। ‘जिस्म जिस्म के लोग’ में - और हर जिस्म में - बदलते वक़्त और बदलते ताल्लुक़ात का रिकॉर्ड दर्ज है।’
‘‘इतने वक़्त के बाद...’’, तुमने मुझसे या शायद जिस्म ने जिस्म से कहा।
‘‘कितने वक़्त के बाद ?’’
‘‘जिस्म की लकीरों से वक़्त लिखा हुआ है।’’
‘‘दोनों जिस्मों पर वक़्त के दस्तख़त हैं’’, मैंने कहा।
जिस्म पर वक़्त के दस्तख़त को मैंने उँगलियों से छुआ तो तुमने याद दिलाया –
‘‘सूरज के उगने, न सूरज के ढलने से...
‘‘वक़्त बदलता है जिस्मों के बदलने से।’’
दुनिया का हर इन्सान अपना - या अपना-सा - जिस्म लिए घूम रहा है। उन्हीं जिस्मों को समझने, उन पर - या उनसे - लिखने और ‘जिस्म-वर्षों के गुज़रने की दास्तान है ‘जिस्म जिस्म के लोग’।
‘‘बहुत जिस्म-वर्ष गुज़र गए...जिस्म जिस्म घूमते रहे !’’ मैंने कहा।
‘‘तो दुनिया घूमकर इस जिस्म के पास क्यूँ आए ?’’
‘‘जिस्मों जिस्मों होता आया’’,
वक़्त के दस्तख़त पर मेरे हाथ रुक गए,
‘‘अब ये जिस्म समझ में आया।’’
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