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दुर्गादास

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7970
आईएसबीएन :9788126320578

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उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द का एक किशोरोपयोगी ऐतिहासिक उपन्यास

Durgadas - Premchand

‘दुर्गादास’ उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द का एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह मूलतः उर्दू लिपि में लिखा गया था जिसे हिन्दी में लिप्यन्तरण करके बाद में सन् 1915 में प्रकाशित किया गया। इसमें एक राष्ट्रप्रेमी, साहसी राजपूत दुर्गादास के संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी है। स्वयं प्रेमचन्द के शब्दों में-‘‘राजपूताना में बड़े-बड़े शूर-वीर हो गये हैं। उस मरुभूमि ने कितने ही नर-रत्नों को जन्म दिया है; पर वीर दुर्गादास अपने अनुपम आत्म-त्याग, अपनी निःस्वार्थ सेवा-भक्ति और अपने उज्जवल चरित्र के लिए कोहनूर के समान हैं। औरों में शौर्य के साथ कहीं-कहीं हिंसा और द्वेष का भाव भी पाया जाएगा, कीर्ति का मोह भी होगा, अभिमान भी होगा; पर दुर्गादास शूर होकर भी साधु पुरुष थे।’’

लेखन-काल के अनुसार, ‘दुर्गादास’ उपन्यास का यह शताब्दी वर्ष है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द की रचनाशीलता के प्रारम्भिक किन्तु महत्त्वपूर्ण तत्त्व समाहित हैं। भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से प्रस्तुत है हिन्दी कथा साहित्य के पाठकों और शोधार्थियों के लिए एक दुर्लभ कृति-‘दुर्गादास’।

प्रेमचन्द का उपन्यास - ‘दुर्गादास’


‘दुर्गादास’ प्रेमचन्द का ऐसा उपन्यास है जो सन् 1915 में एक बार सचित्र प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास मुख्यतः स्कूलों में पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं के लिए लिखा गया था। अपने इस उपन्यास द्वारा प्रेमचन्द तद्युगीन बालक-बालिकाओं के मन में स्वामिभक्ति और देशप्रेम का भाव जगाना चाहते थे और वे इसमें पर्याप्त सफल भी हुए।

‘दुर्गादास’ की भूमिका प्रेमचन्द ने स्वयं लिखी है जो अविकल रूप में यहाँ दी जा रही है-

‘‘बालकों के लिए राष्ट्र के सपूतों के चरित्र से बढ़कर उपयोगी, साहित्य का कोई दूसरा अंग नहीं है। इसमें उनका चरित्र ही बलवान् नहीं होता, उनमें राष्ट्रप्रेम और साहस का संचार भी होता है। राजपूताना में बड़े-बड़े शूरवीर हो गये हैं। उस मरुभूमि ने कितने ही नर-रत्नों को जन्म दिया है, पर वीर दुर्गादास अपने अनुपम आत्म-त्याग, अपनी निःस्वार्थ सेवाभक्ति और अपने उज्जवल चरित्र के लिए कोहनूर के समान हैं। औरों में शौर्य के साथ कहीं-कहीं हिंसा और द्वेष का भाव भी पाया जाएगा, कीर्ति का मोह भी होगा, अभिमान भी होगा, पर दुर्गादास शूर होकर भी साधु पुरुष थे। इन्हीं कारणों से हमने वीर-रत्न दुर्गादास का चरित्र बालकों के सामने रखा है। हमने चेष्टा की है कि पुस्तक की भाषा सरल और बामुहावरा हो और उसमें बालकों की रुचि उत्पन्न हो। -प्रेमचन्द’’

प्रेमचन्द को पढ़ने वाले पाठक जानते हैं कि उन्होंने उपन्यासों और कहानियों में परिच्छेद देने की नयी शैली को जन्म दिया, प्रायः तारतम्यता और बिलगाव की पाठकीय माँग को उन्होंने मनोवैज्ञानिक ढंग से पूरा किया।

प्रेमचन्द जैसा अन्वय तथा व्यतिरेक का ज्ञाता द्विवेदी युग में कोई दूसरा नहीं था। ‘दुर्गादास’ में उनके इस प्रयोग-चातुर्य के उदाहरण अप्राप्य नहीं हैं।

‘दुर्गादास’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसके पात्र, स्थान, स्थानों के बीच दूरियाँ सभी भौगोलिक और ऐतिहासिक हैं।


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