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पुष्यमित्र

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :186
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8039
आईएसबीएन :8188388831

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

Pushyamitra - a hindi book by - Gurudatt

जब-जब भी पंचशील जैसे सिद्धांत का असीम प्रयोग राजनीति में हुआ है, तब-तब ही देश विदेशीय तथा अराष्ट्रवादियों से क्लांत हुआ है। प्रथम प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि अशोक के साम्राज्य का विघटन, जो उसके जीवनकाल में ही आरम्भ हो गया था, उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।

तब मौर्यवंश को समाप्त किया गया और उसके स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार, शुंगवंश, राज्यगद्दी पर आया। शुंगवंश के प्रथम राजा का नाम पुष्यमित्र था।

पुष्यमित्र ने गीता को अपना आदर्श माना व उसके ज्ञान ‘कि जिस व्यवहार को तुम अपने साथ उचित नहीं समझते, वैसा व्यवहार कभी दूसरों के साथ न करें’ को अपनाया।

प्रथम परिच्छेद


पाटलिपुत्र में राजपथ से एक ओर हटकर, एक वीथिका के एक विशाल गृह के प्रांगण में यज्ञवेदी बनी हुई थी। उस वेदी पर पुरोहित के स्थान पर एक ब्राह्मण कौशेय वस्त्र धारण किए बैठा मंत्र उच्चारण कर रहा था।

‘‘ओं शं नो वातः पवता शं नस्तपतु सूर्यः शंनः कनिऋदद्देवः पर्ज न्योऽअभिवर्षतु। स्वाहाः।’’

इस प्रकार अग्नि में घी, सामग्री, समिधा होम की जा रही थी। इस यज्ञ में यजमान था राजपुरोहित अरुणदत्त ज्ञानाचार्य। अरुणदत्त के एकपात्र पुत्र पुष्यमित्र का उपनयन संस्कार हो रहा था। पुष्यमित्र दस वर्ष का मेधावी सुन्दर बालक था। वह अपने पिता से संस्कृत भाषा, गणित इत्यादि पढ़कर पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुका था।

यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए सम्बन्धी तथा मित्रगण भारी संख्या में उपस्थित थे। पूर्ण प्रांगण अभ्यागतों से खचाखच भर रहा था।

अरुणदत्त के वाम आसन पर उसकी धर्मपत्नी भगवती बैठी प्रेमभरी दृष्टि से अपने पुत्र के ओजस्वी मुख को देख आनन्द से पुलकित हो रही थी।
यज्ञ समाप्त हुआ। आचार्य ने दोनों हाथों में यज्ञोपवीत का सूत्र खोल तथा फैला कर मंत्र उच्चारित्र किया,

‘ओं यज्ञोपवीत परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्, आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः। यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।’

तत्पश्चात् सूत्र बालक पुष्यमित्र के बायें कंधे से ऊपर और दाहिने बाजू से नीचे कर पहना दिया गया।

तदनन्तर नव दीक्षित ब्रह्मचारी से यज्ञ कराया गया। जब संस्कार समाप्त हुआ तो सब आमन्त्रित अभ्यागतों ने बालक को आशीर्वाद दे, बालक के माता पिता को बधाइयाँ दीं। अन्त में अरुणदत्त ने उठकर, हाथ जोड़ सबका धन्यवाद कर दिया।

मिष्ठान्न वितरित हुआ और सब लोग पलाश के पत्तों से बने दोने में प्रसाद ले-लेकर विदा हो गए। पुष्यमित्र भी अपने गुरु के साथ विदा होने लगा तो भगवती की आँखों में अश्रु भर आये।

आचार्य श्वेताश्वर ने देवी भगवती की आँखों को भरते देखा तो कहा, ‘देवी ! तुम्हारा बालक महायशस्वी, तेजोमय और प्रतापी होने वाला है। इस तेजस्वी बालक से संसार का कल्याण हो, ऐसा हमें यत्न करना है।

‘‘यह कार्य माता-पिता के लाड़-प्यार में होना सम्भव नहीं है। बारह वर्ष तक यह मेरे संरक्षण में रहेगा और लौटकर माँ के वात्सल्यपूर्ण हृदय को शान्ति प्रदान करेगा।

‘‘देवी ! समाज के इस विधान को धौर्य और शान्ति से स्वीकार करो।’’ भगवती अपनी दुर्बलता पर लज्जा अनुभव करने लगी। उसने आँचल से अपने चक्षु पोंछे और अपने पुत्र के सिर पर हाथ फेर आशीर्वाद दिया। तदनन्तर आचार्य श्वेताश्वर बालक पुष्यमित्र को लेकर अरुणदत्त के गृह से विदा हो गया।

इस समय पाटलिपुत्र में मौर्यवंश देववर्मन् का पुत्र शतधन्वन् राज्यगद्दी पर विराजमान था। महाराज सम्प्रति के काल में राजकार्य में बौद्ध प्रभाव का जो ह्रास हुआ था, वह अब बौद्धों को पुनः प्राप्त होता जा रहा था। सम्प्रति के काल में ब्राह्मणों और शैव मतावलम्बियों को जो पुनः प्राप्त हुआ था, वह धीरे-धीरे विलुप्त होता जा रहा था।

फिर भी सम्प्रति के काल से राज्य-परिषद् के सात सदस्यों में तीन बौद्ध थे। अन्य चार में से एक महाराज स्वयं थे, एक अरुणदत्त था। महामात्य भी एक ब्राह्मण था और सेनापति क्षत्रिय।

महाराज अशोक के नाम की महिमा का गानकर बौद्ध सदैव महाराज शतधन्वन् को महाराज अशोक के पद-चिन्हों पर चलने की प्रेरणा देते रहते थे। मगध-साम्राज्य की आय अब उतनी नहीं रही थी, जितनी अशोक के काल में थी। परन्तु बौद्ध-विहारों को दान-दक्षिणा उसी स्तर पर दिलवाई जाती थी।


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