अतिरिक्त >> अपने आईने में अपने आईने मेंविमल मित्र
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अपने आईने में पुस्तक का किंडल संस्करण...
किंडल संस्करण
सही वक्त पर समाप्त करने की कला ही सबसे बड़ी कला है
(‘साप्ताहिक वर्तमान’ पत्रिका के लिए वरिष्ठ उपन्यासकार विमल मित्र से युवा लेखक सुनीलदास की अंतरंग बातचीत।)
प्रश्न—आप लगभग अस्सी वर्ष के हो गए हैं। आपका साहित्यिक जीवन भी अर्द्धशती पार कर चुका है। बंगला उपन्यास का विपुल भंडार आपके वर्षों के रतजगे का परिणाम है, इसीलिए थकान महसूस करना स्वाभाविक है लेखक के इस अमानवीय तनाव से अब आप मुक्त हो जाना चाहते हैं, मगर सम्पादन और प्रकाशन आपको छोड़ना नहीं चाहते। पाठकों को शुरू से आखिर तक बांधे रखने वाली ऐसी शक्तिशाली लेखनी ज्यादा है ही कहां ? ऐसी स्थिति के बारे में आपका क्या कहना है ?
विमल मित्र—दिलीपकुमार राय ने एक बार शरतचन्द्र से कहा, ‘कभी आपको अपने उस्तादजी का गाना सुनाने ले चलूंगा। जवाब में शरतचन्द ने कहा, ‘आपके उस्ताद कमाल का गाते हैं, यह मैंने भी सुना है ?’
सही वक्त पर समाप्त करने का ज्ञान ही सबसे बड़ी कला है। लेखक के लिए यह बेहद जरूरी है। रवीन्द्रनाथ जैसी महान प्रतिभा को भी १९३४ में ७३ वर्ष की उम्र में उपन्यास लिखना बन्द करने का निर्णय लेना पड़ा था। साठ वर्ष की उम्र में दिवंगत हो जाने से शरतचन्द्र बच गये थे। दुर्भाग्य से मैं अभी जीवित हूँ। रवीन्द्रनाथ अपने जीवन के आखिरी पड़ाव पर अभिव्यक्ति के नये माध्यमों में व्यस्त हो गए थे। उन्होंने अपने उपन्यासकार का बाना उतार दिया। रंग और कूंची के जरिए वे उस अनुभूति को रूप देना चाहते थे जो शब्दातीत थी। उनकी क्षमता से अपनी तुलना करने का सवाल ही नहीं उठता। इधर मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। यही चिन्ता लगी रहती थी कि ‘यह नरदेह’ उपन्यास शायद मैं नहीं पूरा कर पाऊँगा। छह साल तक इसे निरंतर लिखने के बाद, इसे खत्म कर लेने के बाद अब मैं राहत महसूस कर रहा हूँ।
प्रश्न—लगभग पाँच दशक तक इतना विपुल साहित्य रचने के बाद क्या आपको लगता है आप का उद्देश्य पूरा हो गया है ?
विमल मित्र—इस दुनिया में जिन्दा रहने के लिए लोगों को तरह-तरह के टैक्स देने पड़ते हैं। इनकमटैक्स, म्यूनिसिपल टैक्स, रोडटैक्स, प्रोफेशनल टैक्स—ऐसे हजारों तरह के टैक्स जीवन भर अदा करने पड़ते हैं। लेकिन सूर्य की ऊष्मा, चांदनी, मूसलाधार वर्षा इन सब प्राकृतिक सम्पत्ति का उपभोग करने के लिए किसी को भी टैक्स नहीं देना पड़ता। करोड़ों में एकाधिक व्यक्ति ही यह टैक्स अदा करते हैं और ऐसे लोग ही कालिदास, शेक्सपियर और रवीन्द्रनाथ बनते हैं अधिकतर तो उपभोग ही करते हैं, कुछ भी योग करने से बचते हैं। अपना भी कोई योग होना चाहिए, इस सोच ने ही कभी मुझे भी प्रेरित किया था, इस तरह मेरा लिखना शुरू हुआ, यह योगदान कितना सम्पूर्ण या सार्थक हुआ है, इसे मैं नहीं बता सकता। साथ ही कला में परफेक्शन (परिपूर्णता) नाम की कोई चीज़ होती भी है, मैं नहीं जानता।
प्रश्न—इस योगदान के लिए सरकारी नौकरी तक से इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखक के रूप में जीवन बिताना, क्या इतना ही जरूरी हो गया था ?
विमल मित्र—रेलवे की नौकरी मेरे लिए बड़े आराम की नौकरी थी। हर महीने की पहली तारीख को वेतन मिल जाता था। हालांकि हर महीने क्लर्क के सामने वेतन के लिए भी हाथ पसारने में मुझे शर्म महसूस होती थी। इसीलिए मैं कभी खुद वेतन लेने नहीं जाता था। दूसरों को ‘ऑथराइज्ड करके उनसे मंगवा लेता था। आफिस के लोग मुझे बी० के० मित्र के नाम से ही जानते थे। वेतन देने वाला क्लर्क हमेशा कहता था—यह बी० के० मित्र तो कभी नजर ही नहीं आते।
दफ्तर से बाहर मैं विमल मित्र होता था। इस विमल मित्र को मैं दफ्तर की तमाम क्षुद्रताओं से बचाये रखने की कोशिश करता था। दफ्तर के एक कर्मचारी होने के नाते अपने अधिकारियों की भली-बुरी बातों को सुनकर हजम करने वाला होता था बी॰ के॰ मित्र। वह विमल मित्र पर जरा सी आँच नहीं आने देता था। एक बार रेलवे की नौकरी के दौरान मेरी लिखी एक कहानी पर दफ्तर में हंगामा मच गया। उस कहानी में रेलवे के एक अधिकारी के घूस लेने का जिक्र था। उस कहानी को पढ़कर दफ्तर के एक सहकर्मी ने मेरे खिलाफ अधिकारी से शिकायत कर दी थी। बी॰ के॰ मित्र के खिलाफ उस शिकायती—पत्र को एक अधिकारी द्वारा अपने से बड़े अधिकारी को, फिर उसके द्वारा उससे भी बड़े अधिकारी को, आगे भेजने का सिलसिला शुरू हो गया।
एक दिन मेरे अधिकारी ने मुझे बुलाकर कहा, ‘मिस्टर मित्र, अपनी नौकरी तो आप गयी समझें। रेलवे की नौकरी में रहते हुए आपने किसी के खिलाफ कैसे लिखने का साहस किया ?’
मैंने कहा, ‘क्यों ? क्या रेलवे के अफसर घूस नहीं लेते ? क्या आप को वाकई लगता है कि मैंने गलत बात लिखी है ?’
अधिकारी बोले, ‘बात सही-गलत की नहीं है। आपके इस तरह लिखने से हमारे कई अफसर नाराज हैं। आपके खिलाफ एक शिकायती—पत्र मेरे पास आया था, जिसे मैंने अपने से ऊँचे अधिकारी को भेज दिया है। वे जो भी उचित समझेंगे, करेंगे मैंने मामले की जानकारी दे दी !
सब कुछ सुन कर मैं वहाँ से चला आया। इसके बाद वह शिकायती—पत्र ऊपर वाले से ज्यादा ऊपर वाले तक होते-होते जब सर्वोच्च अधिकारी के पास पहुँचा, तब उनकी टिप्पणी थी—It is writer’s Privilege.’
उस बार फैसला मेरे अनुकूल होने के बावजूद इस तरह की छोटी-बड़ी विभिन्न प्रकार की घटनाएं मिस्टर बी॰ के॰ मित्र और लेखक विमल मित्र के दोहरे जीवन में घटती रहीं। ऐसी घटनाओं से मैं अन्दर ही अन्दर विचलित होने लगा। इसीलिए एक दिन दफ्तर छोड़कर, हर महीने वक्त पर मिल जाने वाले वेतन की सुविधा छोड़कर मैंने कलम की कमाई पर जीने वाले लेखक का जीवन अपना लिया। लेकिन यह बात जरूर है कि इस मामले में मेरी पत्नी के समर्थन और सहयोग ने भी बल प्रदान किया था। इस पुस्तक के कुछ पृष्ठ यहाँ देखें।
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