अतिरिक्त >> चलो कलकत्ता चलो कलकत्ताविमल मित्र
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चलो कलकत्ता पुस्तक का किंडल संस्करण
बुधुआ ने कालीघाट में मनौती मान रखी थी। हे काली माई, मुझे अगर एक लड़का दे दो तो तुम्हारी पूजा करूँगा, पूरा बकरा बलि दूँगा, भोग चढ़ाऊँगा और परसाद खाऊँगा।
वैसे आजकल बकरों की कीमत भी काफी बढ़ गई है। बुधुआ के बाप हरबंसलाल ने जब चालीस साल पहले बलि के लिए बकरा खरीदा था, तो एक छोटे बकरे की कीमत थी सिर्फ तीन रुपये। आज वह कीमत तीन रुपये से बढ़ते-बढ़ते बीस रुपये पर आकर रुक गई है।
बुधुआ उस बकरे को लेकर जयचंडीपुर से ही ट्रेन में चढ़ा था। कलकत्ते तक का सफर ट्रेन से तय करना था। छोटी सी ट्रेन जैसे माचिस बक्स हो। जयचंडीपुर से पूरे तीन कोस का फासला पैदल तय करने के बाद जयचंडीपुर स्टेशन आता था। बुधुआ की माँ ने पिछली रात को ही सफर के लिए ज्वार की रोटी बनाकर रख ली थी। बुधुआ, उसकी बहू और बेटी ने वही रोटी खायी थी।
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