गीता प्रेस, गोरखपुर >> ऊँ नमः शिवाय ऊँ नमः शिवायगीताप्रेस
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भगवान शंकर के सभी रूपों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम्
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय
भस्मांगरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै ‘न’ कराय नमः शिवाय।।1।।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै ‘म’ काराय नमः शिवाय।।2।।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द-
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै ‘शि’ कराय नमः शिवाय।।3।।
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य-
मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय
तस्मै ‘व’ कराय नमः शिवाय।।4।।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै ‘य’ काराय नमः शिवाय।।5।।
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्रोति शिवेन सह मोदते।।6।.
भस्मांगरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै ‘न’ कराय नमः शिवाय।।1।।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै ‘म’ काराय नमः शिवाय।।2।।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द-
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै ‘शि’ कराय नमः शिवाय।।3।।
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य-
मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय
तस्मै ‘व’ कराय नमः शिवाय।।4।।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै ‘य’ काराय नमः शिवाय।।5।।
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्रोति शिवेन सह मोदते।।6।.
इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं शिवपञ्चाक्षरस्त्रोतं सम्पूर्णम्।
द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्
सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथम शरणं प्रपद्ये।।1।।
श्रीशैलश्रृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।3।।
कावेरिकानमर्दयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपूरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।4।।
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्यम श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।5।।
याम्ये सदंगे नगरेऽतिरम्ये विभूषितांग विविधैश्च भोगैः।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये।।6।।
महाद्रिपार्शे्व च तटे रमंतं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यैः। केदारमीशं शिवमेकमीडे।।7।।
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे।।8।।
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।9।।
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निशेव्यमाणं पिशिताश्नैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।10।।
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये।।11
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये।।12।।
ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च।।13।।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथम शरणं प्रपद्ये।।1।।
श्रीशैलश्रृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।3।।
कावेरिकानमर्दयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपूरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।4।।
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्यम श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।5।।
याम्ये सदंगे नगरेऽतिरम्ये विभूषितांग विविधैश्च भोगैः।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये।।6।।
महाद्रिपार्शे्व च तटे रमंतं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यैः। केदारमीशं शिवमेकमीडे।।7।।
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे।।8।।
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।9।।
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निशेव्यमाणं पिशिताश्नैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।10।।
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये।।11
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये।।12।।
ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च।।13।।
इति श्रीद्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रं सम्पूर्णम्
1. श्रीसोमनाथ
यह ज्योतिर्लिंग सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मन्दिर में स्थापित है। यह
मन्दिर है गुजरात प्रान्त के काठिवाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित
है। पहले यह क्षेत्र प्रभासक्षेत्र के नामसे जाना जाता था। यहीं भगवान्
श्रीकृष्णने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण
किया था। यहाँ के ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार दी हुई
है—
दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याएँ थीं। उन सभी का विवाह चन्द्र देवता के साथ हुआ था। किन्तु चन्द्रमा का समस्त अनुराग उनमें एक केवल रोहिणी के प्रति ही रहता था। उनके इस कार्य से दक्ष प्रजाप्रति की अन्य कन्याओं को बहुत कष्ट रहता था। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनायी। दक्ष प्रजापति ने इसके लिये चन्द्रदेव को बहुत प्रकार से समझाया। किन्तु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः दक्षने क्रुद्ध होकर उन्हें ‘क्षयी’ हो जाने का शाप दे दिया। इस शाप के कारण चन्द्रदेव तत्काल क्षयग्रस्त हो गये।
उनके क्षयग्रस्त होते ही पृथ्वी पर सुधा-शीतलता-वर्षण का उनका सारा कार्य रुक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। चन्द्रमा भी बहुत दुःखी और चिन्तित थे। उनकी प्रार्थना सुनकर इन्द्रादि देवता तथा वशिष्ठ आदि ऋषिगण उनके उद्धार के लिये पितामह ब्रह्माजी के पास गये सारी बातों को सुनकर ब्रह्माजीने कहा—‘चन्द्रमा अपने शाप-विमोचन के लिये अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभासक्षेत्र में जाकर मृत्युञज्यभगवान् की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही इनका शाप नष्ट हो जायेगा और ये रोगमुक्त हो जायेंगे।’
उनके कथनानुसार चन्द्रदेव ने मृत्युञ्जय भगवान् की आराधना का सारा कार्य पूरा किया। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ मृत्युञंजय-मन्त्र का जप किया। इससे प्रसन्न होकर मृत्युञ्जय भगवान् शिव ने उन्हें अमरत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा—‘चन्द्रदेव ! तुम शोक न करो मेरे वर से तुम्हारा शाप-मोचन तो होगा ही, साथ-ही-साथ प्रजापति दक्षके वचनों की रक्षा भी हो जायेगी। कृष्ण पक्षमें प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी, किन्तु पुनः शुक्ल पक्षमें उसी क्रमसे तुम्हारी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चन्द्रत्व प्राप्त होता रहेगा।’ चन्द्रमा को मिलनेवाले पितामह ब्रह्माजी के इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे। सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा-वर्षणका कार्य पूर्ववत् करने लगे।
शापमुक्त होकर चन्द्रदेव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युञ्जय-भगवान् से प्रार्थना की कि आप माता पार्वती जी के साथ सदा के लिये प्राणियों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। भगवान् शिव उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योतिर्लिंग के रूप में मातापार्वती के साथ तभी से यहाँ रहने लगे। पावन प्रभासक्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्दपुराणादि में विस्तार से बतायी गयी है। चन्द्रमाका एक नाम सोम भी है, उन्होंने भगवान् शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। अतः इस ज्योतिर्लिंग को सोमनाथ कहा जाता है। इसके दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मान्तर के सारे पाप तक और दुष्कृत्य विनष्ट हो जाते हैं। वे भगवान् शिव और माता पार्वती की अक्षयकृपाका पात्र बन जाते हैं। मोक्ष मार्ग उनके लिये सहज ही सुलभ हो जाता है। उनके अलौकिक-पारलौकिक सारे कृत्य स्वयमेव, अनायास सफल हो जाते हैं।
दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याएँ थीं। उन सभी का विवाह चन्द्र देवता के साथ हुआ था। किन्तु चन्द्रमा का समस्त अनुराग उनमें एक केवल रोहिणी के प्रति ही रहता था। उनके इस कार्य से दक्ष प्रजाप्रति की अन्य कन्याओं को बहुत कष्ट रहता था। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनायी। दक्ष प्रजापति ने इसके लिये चन्द्रदेव को बहुत प्रकार से समझाया। किन्तु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अन्ततः दक्षने क्रुद्ध होकर उन्हें ‘क्षयी’ हो जाने का शाप दे दिया। इस शाप के कारण चन्द्रदेव तत्काल क्षयग्रस्त हो गये।
उनके क्षयग्रस्त होते ही पृथ्वी पर सुधा-शीतलता-वर्षण का उनका सारा कार्य रुक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। चन्द्रमा भी बहुत दुःखी और चिन्तित थे। उनकी प्रार्थना सुनकर इन्द्रादि देवता तथा वशिष्ठ आदि ऋषिगण उनके उद्धार के लिये पितामह ब्रह्माजी के पास गये सारी बातों को सुनकर ब्रह्माजीने कहा—‘चन्द्रमा अपने शाप-विमोचन के लिये अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभासक्षेत्र में जाकर मृत्युञज्यभगवान् की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही इनका शाप नष्ट हो जायेगा और ये रोगमुक्त हो जायेंगे।’
उनके कथनानुसार चन्द्रदेव ने मृत्युञ्जय भगवान् की आराधना का सारा कार्य पूरा किया। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ मृत्युञंजय-मन्त्र का जप किया। इससे प्रसन्न होकर मृत्युञ्जय भगवान् शिव ने उन्हें अमरत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा—‘चन्द्रदेव ! तुम शोक न करो मेरे वर से तुम्हारा शाप-मोचन तो होगा ही, साथ-ही-साथ प्रजापति दक्षके वचनों की रक्षा भी हो जायेगी। कृष्ण पक्षमें प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी, किन्तु पुनः शुक्ल पक्षमें उसी क्रमसे तुम्हारी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चन्द्रत्व प्राप्त होता रहेगा।’ चन्द्रमा को मिलनेवाले पितामह ब्रह्माजी के इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे। सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा-वर्षणका कार्य पूर्ववत् करने लगे।
शापमुक्त होकर चन्द्रदेव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युञ्जय-भगवान् से प्रार्थना की कि आप माता पार्वती जी के साथ सदा के लिये प्राणियों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। भगवान् शिव उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योतिर्लिंग के रूप में मातापार्वती के साथ तभी से यहाँ रहने लगे। पावन प्रभासक्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्दपुराणादि में विस्तार से बतायी गयी है। चन्द्रमाका एक नाम सोम भी है, उन्होंने भगवान् शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। अतः इस ज्योतिर्लिंग को सोमनाथ कहा जाता है। इसके दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मान्तर के सारे पाप तक और दुष्कृत्य विनष्ट हो जाते हैं। वे भगवान् शिव और माता पार्वती की अक्षयकृपाका पात्र बन जाते हैं। मोक्ष मार्ग उनके लिये सहज ही सुलभ हो जाता है। उनके अलौकिक-पारलौकिक सारे कृत्य स्वयमेव, अनायास सफल हो जाते हैं।
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