अतिरिक्त >> सम्भवामि युगे युगे - भाग 2 सम्भवामि युगे युगे - भाग 2गुरुदत्त
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सम्भवामि युगे युगे - भाग 2 पुस्तक का आई पैड संस्करण
आई पैड संस्करण
महाभारत की कथा के आधार पर लिखे गये उपन्यासों की श्रृंखला में यह उपन्यास
एक कड़ी है। महाभारत ज्ञान भण्डार है और यह भण्डार अत्यन्त सरस तथा सरल
भाषा में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। यह उपन्यास महाभारत की शुद्ध
विवेचना में लिखा गया है। लेखक हैं श्री गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
1.
पांडवों के खांडव क्षेत्र में चले जाने के पश्चात् मुझको धृतराष्ट्र का
निमंत्रण मिला। मैं वहां गया तो महाराज के पास दुर्योधन, दु:शासन और कर्ण
बैठे हुए थे। मैंने प्रणाम किया तो महाराज धृतराष्ट्र ने बैठने का आदेश दे
दिया। मेरे बैठने पर दुर्योधन ने मुझको सम्बोधन करके कहा,
‘‘तात् ! हमको ज्ञात हुआ है कि आपकी पाठशाला बंद हो
गयी
है।’’
‘‘हां महाराज !’’
‘‘हमें यह भी पता चला है कि आपने श्रीकान्त और शकुन्तला से कुछ भी नहीं लिया।’’
‘‘हां महाराज ! आपको ठीक ही पता चला है।’’
‘‘तो निर्वाह कैसे होता है ?’’
‘‘महाराज, एक ब्राह्मण के लिए निर्वाह की कठिनाई कभी नहीं हुई। जब भी किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो श्रीमान् जैसे किसी दयालु के पास जा पहुँचता हूँ और वह एक ब्राह्मण को आवश्यकता में देख उसकी झोली भर देता है।’’
‘‘यह तो अति हीन अवस्था है। मांगने के लिए जाते हुए लज्जा तो लगती होगी।’’
‘‘लज्जा की बात नहीं है महाराज ! एक ब्राह्मण का धर्म है कि दान ले और दान दे।’’
इस पर कर्ण के माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘‘तो आप दान देते भी है ? भला क्या दान देते है ?’’
‘‘जो मेरे पास है। मैं वेद-वेदांग का ज्ञाता हूँ। अत: जिज्ञासु को अपना ज्ञान देता हूँ।’’
इस पर दु:शासन हँस पड़ा। वह बोला, ‘‘यह भी भला कोई दान देने की वस्तु है। सुना है कि उपनिषद् पढ़ने से वैराग्य उत्पन्न होता है, जो दु:ख ही देता है।’’
मैं मुस्कराया और कहने लगा, ‘‘जिसके पास जो है, वही तो दान रूप में बांट सकता है।’’
‘‘यह विद्या है क्या ? हम तो वेद-वेदांग को अविद्या मानते हैं।’’
‘‘तो कुमार ! आपको आवश्यकता नहीं कि आप इसकी प्राप्ति के लिए यत्न करें। मेरे पास तो यही है और मैं इसी का दान देता हूं। यह विद्या केवल उनको ही दी जाती है जो इसको प्राप्त करने में अपना कल्याण मानते हों।’’
‘‘कितनी व्यर्थ की बात है ! आप तो अपना जीवन ही निष्फल कर रहे हैं। हम चाहते थे कि हम आपके अनुभव का लाभ उठा सकते।’’
‘‘यह मेरा अहोभाग्य होगा। परन्तु श्रीमान्, मेरे अनुभव का निचोड़ यही है कि वेद भगवान ज्ञान का स्रोत्र हैं। यह असत्य नहीं है, न हो सकते हैं।’’
‘‘यह कैसे कहते हैं आप ?’’
‘‘इस कारण, कुमार ! कि वेद सब संसार के मूल स्रोत्र भगवान का ज्ञान देने वाले हैं। इसका ज्ञान हो जाने से-
‘भिद्यते हृदयग्रन्थि छिद्यन्ते सर्व संशया:।1
शमन्ते यस्य कर्माणि तस्मिनेदृष्टे परावरे।।’
अत: ऐसे व्यक्ति को जन्म-मरण के बन्धन में आने की आवश्यकता नहीं रहती।’’
अब धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘संजयजी ! इनको यह बताओ की कैसे भगवान का ज्ञान और भ्रमजनित संशयों की निवृत्ति, एक राजा के कार्य में सहायक हो सकती है ?’’
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1. ब्रह्म परमात्मा का ज्ञान अविद्यारूप ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न कर देता है। मन के सब संशय मिट जाते हैं और कर्म क्षीण हो जाते। अर्थात् वे फल नहीं देते।
‘‘महाराज ! वही निवेदन करना चाहता हूँ। जिस मनुष्य के संशय निवृत्त हो जाते हैं उसके लिए इस संसार में कोई भी कार्य नहीं रह जाता।’’
‘‘भगवान के ज्ञान का अर्थ है अपने को इस भवसागर के कर्त्ता के साथ सस्वर कर लेना। जैसे दो वाद्य-यंत्र एक ही स्वर में हो जाने से एक समान बजने लगते हैं, वैसे ही जब हम उस परम शक्तिमान् के साथ अपने को सस्वर कर लेते हैं तो हमारे सम्मुख ब्रह्माण्ड से रहस्य सुस्पष्ट हो जाते हैं। राज्य तो इस ब्रह्माण्ड के कार्य का एक अति सूक्ष्म भाग है। इस अवस्था में राज्य-कर्म सरल हो जाता है।’’
धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘इन राजकुमारों को इस कथन पर विश्वास नहीं है।’’
‘‘यह तो परीक्षा का विषय है, महाराज ! देखिये, आपने पांडवों को खाण्डव क्षेत्र का भाग दे दिया है। वह सारा जांगल्य देश है। उससे अधिकांश मरुभूमि है।’’
‘पांडवों ने भगवान का नाम लेकर कार्यारम्भ किया है। और जो सूचनाएं अभी तक आयी हैं, उनसे यह समझ में आता है कि उनको किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हो रही। लोग स्वेच्छा से कर देते हैं। भूमि को उपजाऊं बनाने के लिए वहां वृष्टि होती है और प्रजा संतुष्ट तथा प्रसन्न प्रतीत होती है।’
‘‘इन्द्रप्रस्थ एक छोटा-सा गांव था। वह देखते ही देखते एक नगर बनता जा रहा है। वहां पर प्रासाद, उद्यान, क्रीड़ा-स्थान, विद्यालय, आतुरालय वेग से बनते जा रहे हैं।’’
‘‘मैं इसको भगवान की अनुकम्पा ही मानता हूं।’’
इस पर तीनों कुमार हँस पड़े। हँसने के पश्चात दुर्योधन ने पूछा, ‘‘क्या वहां युधिष्ठिर को परिश्रम नहीं करना पड़ता ?’’
‘‘महाराज ! यदि परिश्रम करने मात्र से ही कोई कार्य सम्पन्न हो सकता तो कर्मकार राजा बन जाते। वे मुझ और आपसे अधिक परिश्रम करते हैं। फिर श्रीमान ने भी तो ऐसे कार्य करने का यत्न किया है जो भगवान की इच्छा के प्रतिकूल थे। श्रीमान के विपुल प्रयत्न पर भी उनमें सफलता नहीं मिली।’’
इस पर दु:शासन ने पूछ लिया, ‘‘कौन सा ऐसा कार्य हमने किया है जिससे हमें सफलता नहीं मिली।’’
मैंने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘कुमार, उन सब कार्यों की बात तो मैं जानता नहीं जो तुम लोग छुप-छुप करते रहते हो। वे तुम जानो और तुम्हारी अन्तरात्मा जाने। मैं तो कुछ कार्यों के विषय में ही बता सकता हूं जो मेरे ज्ञान में आये हैं। क्या उनकी गिनती कराऊं ?’’
‘‘एक तो बताइए।’’
‘‘भीम को विष देकर मारने का प्रयास; लक्ष-गृह में पांडवों को जीवित जला देने का प्रयास; द्रौपदी के स्वयंवर के समय एक निर्धन ब्राह्मण को स्वयंवर में विजय प्राप्त करते देख उसके उपहार को बलपूर्वक छीनने का यत्न। कुमार ! ये आपके कुछ कार्य हैं जिनमें भगवान से अनुकूलता नहीं थी और इन सब में आपको भाग-दौड़ करने पर भी सफलता नहीं मिली।’’
‘‘यह आप कैसे कह सकते हैं कि इन कर्मों में भगवान से अनुकूलता नहीं थी ?’’ कर्ण ने बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘संसार भर की भूमि धन और सुन्दर स्त्रियां नरेशों के भोग की वस्तु हैं। भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी को एक निर्धन ब्राह्मण के हाथ में जाते देख बाधा डालना हमारा कर्तव्य ही था। यह कर्त्तव्य भगवान का निश्चय किया हुआ नहीं, कैसे कहते हैं आप ?’’
‘‘अंगराज !’’ मैंने कहा, ‘‘भगवदेच्छा के विपरीत कार्य करने वाले में सर्वप्रथम यही दोष आ जाता है कि वह युक्ति नहीं कर सकता। उसकी बुद्धि इतनी मलिन हो जाती है कि वह काले को गोरा और गोरे को काला मानने लगता है।’’
‘‘संसार की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियों का भोग करना नरेशों का कर्त्तव्य है, यह एक अनर्गल वक्तव्य है। इसमें कुछ भी प्रमाण नहीं।’’
‘‘जब कोई कार्य श्रेष्ठजन करे तो वह प्रमाण माना जाना चाहिए। भीष्मजी ने काशिराज की कन्याओं का अपहरण किया था। द्वारिकाधिपति कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया था। क्या इसको आप प्रमाण नहीं मानते ?’’
‘‘हां महाराज !’’
‘‘हमें यह भी पता चला है कि आपने श्रीकान्त और शकुन्तला से कुछ भी नहीं लिया।’’
‘‘हां महाराज ! आपको ठीक ही पता चला है।’’
‘‘तो निर्वाह कैसे होता है ?’’
‘‘महाराज, एक ब्राह्मण के लिए निर्वाह की कठिनाई कभी नहीं हुई। जब भी किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो श्रीमान् जैसे किसी दयालु के पास जा पहुँचता हूँ और वह एक ब्राह्मण को आवश्यकता में देख उसकी झोली भर देता है।’’
‘‘यह तो अति हीन अवस्था है। मांगने के लिए जाते हुए लज्जा तो लगती होगी।’’
‘‘लज्जा की बात नहीं है महाराज ! एक ब्राह्मण का धर्म है कि दान ले और दान दे।’’
इस पर कर्ण के माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘‘तो आप दान देते भी है ? भला क्या दान देते है ?’’
‘‘जो मेरे पास है। मैं वेद-वेदांग का ज्ञाता हूँ। अत: जिज्ञासु को अपना ज्ञान देता हूँ।’’
इस पर दु:शासन हँस पड़ा। वह बोला, ‘‘यह भी भला कोई दान देने की वस्तु है। सुना है कि उपनिषद् पढ़ने से वैराग्य उत्पन्न होता है, जो दु:ख ही देता है।’’
मैं मुस्कराया और कहने लगा, ‘‘जिसके पास जो है, वही तो दान रूप में बांट सकता है।’’
‘‘यह विद्या है क्या ? हम तो वेद-वेदांग को अविद्या मानते हैं।’’
‘‘तो कुमार ! आपको आवश्यकता नहीं कि आप इसकी प्राप्ति के लिए यत्न करें। मेरे पास तो यही है और मैं इसी का दान देता हूं। यह विद्या केवल उनको ही दी जाती है जो इसको प्राप्त करने में अपना कल्याण मानते हों।’’
‘‘कितनी व्यर्थ की बात है ! आप तो अपना जीवन ही निष्फल कर रहे हैं। हम चाहते थे कि हम आपके अनुभव का लाभ उठा सकते।’’
‘‘यह मेरा अहोभाग्य होगा। परन्तु श्रीमान्, मेरे अनुभव का निचोड़ यही है कि वेद भगवान ज्ञान का स्रोत्र हैं। यह असत्य नहीं है, न हो सकते हैं।’’
‘‘यह कैसे कहते हैं आप ?’’
‘‘इस कारण, कुमार ! कि वेद सब संसार के मूल स्रोत्र भगवान का ज्ञान देने वाले हैं। इसका ज्ञान हो जाने से-
‘भिद्यते हृदयग्रन्थि छिद्यन्ते सर्व संशया:।1
शमन्ते यस्य कर्माणि तस्मिनेदृष्टे परावरे।।’
अत: ऐसे व्यक्ति को जन्म-मरण के बन्धन में आने की आवश्यकता नहीं रहती।’’
अब धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘संजयजी ! इनको यह बताओ की कैसे भगवान का ज्ञान और भ्रमजनित संशयों की निवृत्ति, एक राजा के कार्य में सहायक हो सकती है ?’’
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1. ब्रह्म परमात्मा का ज्ञान अविद्यारूप ग्रन्थि को छिन्न-भिन्न कर देता है। मन के सब संशय मिट जाते हैं और कर्म क्षीण हो जाते। अर्थात् वे फल नहीं देते।
‘‘महाराज ! वही निवेदन करना चाहता हूँ। जिस मनुष्य के संशय निवृत्त हो जाते हैं उसके लिए इस संसार में कोई भी कार्य नहीं रह जाता।’’
‘‘भगवान के ज्ञान का अर्थ है अपने को इस भवसागर के कर्त्ता के साथ सस्वर कर लेना। जैसे दो वाद्य-यंत्र एक ही स्वर में हो जाने से एक समान बजने लगते हैं, वैसे ही जब हम उस परम शक्तिमान् के साथ अपने को सस्वर कर लेते हैं तो हमारे सम्मुख ब्रह्माण्ड से रहस्य सुस्पष्ट हो जाते हैं। राज्य तो इस ब्रह्माण्ड के कार्य का एक अति सूक्ष्म भाग है। इस अवस्था में राज्य-कर्म सरल हो जाता है।’’
धृतराष्ट्र ने कहा, ‘‘इन राजकुमारों को इस कथन पर विश्वास नहीं है।’’
‘‘यह तो परीक्षा का विषय है, महाराज ! देखिये, आपने पांडवों को खाण्डव क्षेत्र का भाग दे दिया है। वह सारा जांगल्य देश है। उससे अधिकांश मरुभूमि है।’’
‘पांडवों ने भगवान का नाम लेकर कार्यारम्भ किया है। और जो सूचनाएं अभी तक आयी हैं, उनसे यह समझ में आता है कि उनको किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हो रही। लोग स्वेच्छा से कर देते हैं। भूमि को उपजाऊं बनाने के लिए वहां वृष्टि होती है और प्रजा संतुष्ट तथा प्रसन्न प्रतीत होती है।’
‘‘इन्द्रप्रस्थ एक छोटा-सा गांव था। वह देखते ही देखते एक नगर बनता जा रहा है। वहां पर प्रासाद, उद्यान, क्रीड़ा-स्थान, विद्यालय, आतुरालय वेग से बनते जा रहे हैं।’’
‘‘मैं इसको भगवान की अनुकम्पा ही मानता हूं।’’
इस पर तीनों कुमार हँस पड़े। हँसने के पश्चात दुर्योधन ने पूछा, ‘‘क्या वहां युधिष्ठिर को परिश्रम नहीं करना पड़ता ?’’
‘‘महाराज ! यदि परिश्रम करने मात्र से ही कोई कार्य सम्पन्न हो सकता तो कर्मकार राजा बन जाते। वे मुझ और आपसे अधिक परिश्रम करते हैं। फिर श्रीमान ने भी तो ऐसे कार्य करने का यत्न किया है जो भगवान की इच्छा के प्रतिकूल थे। श्रीमान के विपुल प्रयत्न पर भी उनमें सफलता नहीं मिली।’’
इस पर दु:शासन ने पूछ लिया, ‘‘कौन सा ऐसा कार्य हमने किया है जिससे हमें सफलता नहीं मिली।’’
मैंने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘कुमार, उन सब कार्यों की बात तो मैं जानता नहीं जो तुम लोग छुप-छुप करते रहते हो। वे तुम जानो और तुम्हारी अन्तरात्मा जाने। मैं तो कुछ कार्यों के विषय में ही बता सकता हूं जो मेरे ज्ञान में आये हैं। क्या उनकी गिनती कराऊं ?’’
‘‘एक तो बताइए।’’
‘‘भीम को विष देकर मारने का प्रयास; लक्ष-गृह में पांडवों को जीवित जला देने का प्रयास; द्रौपदी के स्वयंवर के समय एक निर्धन ब्राह्मण को स्वयंवर में विजय प्राप्त करते देख उसके उपहार को बलपूर्वक छीनने का यत्न। कुमार ! ये आपके कुछ कार्य हैं जिनमें भगवान से अनुकूलता नहीं थी और इन सब में आपको भाग-दौड़ करने पर भी सफलता नहीं मिली।’’
‘‘यह आप कैसे कह सकते हैं कि इन कर्मों में भगवान से अनुकूलता नहीं थी ?’’ कर्ण ने बात बीच में काटते हुए कहा, ‘‘संसार भर की भूमि धन और सुन्दर स्त्रियां नरेशों के भोग की वस्तु हैं। भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी को एक निर्धन ब्राह्मण के हाथ में जाते देख बाधा डालना हमारा कर्तव्य ही था। यह कर्त्तव्य भगवान का निश्चय किया हुआ नहीं, कैसे कहते हैं आप ?’’
‘‘अंगराज !’’ मैंने कहा, ‘‘भगवदेच्छा के विपरीत कार्य करने वाले में सर्वप्रथम यही दोष आ जाता है कि वह युक्ति नहीं कर सकता। उसकी बुद्धि इतनी मलिन हो जाती है कि वह काले को गोरा और गोरे को काला मानने लगता है।’’
‘‘संसार की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियों का भोग करना नरेशों का कर्त्तव्य है, यह एक अनर्गल वक्तव्य है। इसमें कुछ भी प्रमाण नहीं।’’
‘‘जब कोई कार्य श्रेष्ठजन करे तो वह प्रमाण माना जाना चाहिए। भीष्मजी ने काशिराज की कन्याओं का अपहरण किया था। द्वारिकाधिपति कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया था। क्या इसको आप प्रमाण नहीं मानते ?’’
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