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श्रंगार - प्रेम >> पतझर

पतझर

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8738
आईएसबीएन :9788170288398

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कथा में एक युवक और युवती प्रेम को आधार बनाकर आदिम युग से आज तक की सभ्यता, संस्कृति को दिखाया गया है।

Patjhar (Rangey Raghav)

जैसे पतझर में वृक्ष के पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और उनकी जगह नए पत्ते ले लेते हैं उसी प्रकार पुरानी विचारधाराएं समय के साथ अपना महत्त्व खोने लगती हैं और उसके स्थान पर नई विचारधाराएं जन्म लेती हैं।

कथा में एक युवक और युवती प्रेम को आधार बनाकर आदिम युग से आज तक की सभ्यता, संस्कृति को दिखाया गया है। साथ ही प्रेम के संदर्भ में उठने वाले प्रश्नों को उठाया गया है। जैसे; क्या प्रेम शाश्वत है ? क्या प्रेम अपना आधार आप ही है ? और क्या प्रेम जीवन, परिवार और सन्तान की अपेक्षा नहीं रखता ?

रांगेय राघव के पात्र हमेशा जीवन्त होते हैं। चाहे वे दार्शनिक हों, डाक्टर हों, कलाकार हों या किसान। यही कारण है कि उपन्यास के पात्र पाठक से सहज ही तालमेल बैठा लेते हैं। जो लेखक ही सबसे बड़ी उपलब्धि है।

रांगेय राघव ने अपनी अन्य रचनाओं की तरह इस उपन्यास का कथानक भी आम जनजीवन से ही तलाशा है। नई और पुरानी पीढी का टकराव हर काल और हर समुदाय में आ रहा है। इसी कालातीत विषय को केन्द्र में रख कर उपन्यास की कहानी आगे बढ़ती है।

प्यार के प्रति विशेष कर अंतर्जातीय प्रेम-संबंधों को लेकर समाज का दृष्टिकोण हमेशा से संकीर्ण रहा है। उनके खोखले आदर्शों और मान्यताओं के चलते उनकी संतानें किस तरह कुण्ठा और हताशा भरा जीवन जीने को विवश होती हैं, इसी को रांगेय राघव ने अपनी अनूठी शैली में अभिव्यक्त किया है।

रांगेय राघव का जीवन परिचय

(1923-1962)

जन्म – आगरा (उत्तर प्रदेश) अधिकांश जीवन, आगरा, वैर और जयपुर में व्यतीत।

शिक्षा – सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा से 1944 में स्नातकोत्तर और 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर पी-एच.डी.।

कृतियाँ – उपन्यास – कब तक पुकारूँ, घरौंदा, धरती मेरा घर, प्रोफेसर, पथ का पाप, आखिरी आवाज़। (जीवनीपरक उपन्यास) रत्ना की बात, लखिमा की आंखें, मेरी भव बाधा हरो, यशोधरा जीत गई, देवकी का बेटा, भारती का सपूत, लोई का ताना।

नाटक – शेक्सपियर के लोकप्रिय नाटकों – ओथेलो, जूलियस सीज़र, मैकबेथ, तूफ़ान, वेनिस का सौदागर, हैमलेट, बारहवीं रात, भूल-भुलैया, निष्फल प्रेम, जैसा तुम चाहो, तिल का ताड़, परिवर्तन, रोमियो जूलियट का सरल हिन्दी अनुवाद-रूपांतर।

पुरस्कार – हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1951), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957 व 1959), रास्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961), तथा मरणोपरांत (1966) महात्मा गाँधी पुरस्कार।

1

‘‘यह मेरे पास जो पता है यह ठीक है ? डॉक्टर साहब यहीं रहते हैं क्या ?’’ ‘‘कौन-से डॉक्टर साहब ?’’
‘‘डॉक्टर सक्सेना। वे जो अभी विलायत से पढ़कर आए हैं, दिमाग का इलाज करते हैं न, वे ही।’’ उस आदमी के स्वर में परेशानी थी जैसे वह समझ नहीं पा रहा था कि वह अपने को कैसे अभिव्यक्ति दे। पढ़ा-लिखा आदमी था। आयु लगभग पचास वर्ष। दूसरे आदमी की आँखों पर चश्मा लगा हुआ था। उसने कहा, ‘‘आप जिनकी तलाश कर रहे हैं उन्हीं की तलाश में भी कर रहा हूँ।’’

‘‘अच्छा ! तो आप उनसे मिल लिए ?’’
‘‘कहां साहब, जैसे आप अभी आए हैं वैसे ही मैं भी आया हूँ।’’
‘‘आप इसी शहर में रहते हैं ?’’
‘‘जी हाँ, मैं इसी शहर में रहता हूँ।’’
‘‘कहां ?’’
‘‘बापू नगर। और आप ?’’
‘‘बनी पार्क।’’
‘‘आपका शुभ नाम ?’’
‘‘हरबंसलाल ! और आपका ?’’
‘‘दीनानाथ ?’’
दोनों आदमी सड़क के किनारे हट गए। त्रिपोलिया की भीड़ इधर से उधर जा रही थी और उन लोगों को जैसे इससे मतलब नहीं था। मोटर, तांगे, रिक्शे, कोलाहल, आवागमन ! दीनानाथ ने कहा, ‘‘मैं कल भी आया था।’’


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