कविता संग्रह >> शूर्पणखा शूर्पणखाश्याम गुप्त
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शूर्पणखा खण्डकाव्य की कथावस्तु रामायण कालीन होते हुये भी आज भी प्रासंगिक है
डा. श्याम गुप्त ने शूर्पणखा कृति में खण्ड काव्य के शास्त्रीय लक्षणों का पालन कर अपनी प्रबन्ध-पटुता प्रदर्शित की है। खण्डकाव्य की नायिका शूर्पणखा और उसकी कथा वस्तु के चयन में कवि ने विवेक से कार्य लिया है। वन्दना, विनय और पूर्वापर के अतिरिक्त इस खण्डकाव्य में नौ सर्ग हैं।
मंगलाचरण से खण्डकाव्य के प्रारम्भ का विधान है। जिस नियम का अनुसरण कवि ने सफलतापूर्वक किया है। वन्दना का आरंभिक छन्द माँ सरस्वती के प्रति रचनाकार की भक्ति और निष्ठा का प्रतीक है -
मंगलाचरण से खण्डकाव्य के प्रारम्भ का विधान है। जिस नियम का अनुसरण कवि ने सफलतापूर्वक किया है। वन्दना का आरंभिक छन्द माँ सरस्वती के प्रति रचनाकार की भक्ति और निष्ठा का प्रतीक है -
माँ की भक्ति भाव के इच्छुक,
श्रेष्ठ कर्म रत, ज्ञान-धर्म-युत,
जब माँ का आवाहन करते,
इच्छित वर उनको मिलते हैं,
कृपा-दृष्टि हो माँ सरस्वती।
हों मन में नव भाव अवतरित।
श्रेष्ठ कर्म रत, ज्ञान-धर्म-युत,
जब माँ का आवाहन करते,
इच्छित वर उनको मिलते हैं,
कृपा-दृष्टि हो माँ सरस्वती।
हों मन में नव भाव अवतरित।
विनय के अन्तर्गत विशाल भारत की ध्वजा विश्व में फहराने की मंगल-कामना खण्डकाव्य प्रणेता ने की है -
कमला के कान्त की शरण धर पंकज कर,
श्याम की विनय यही है कमलाकान्त से।
भारत विशाल की ध्वजा फहरे विश्व में,
कीर्ति कुमुदनी नित्य मिले निशाकान्त से।
श्याम की विनय यही है कमलाकान्त से।
भारत विशाल की ध्वजा फहरे विश्व में,
कीर्ति कुमुदनी नित्य मिले निशाकान्त से।
कृति की कथावस्तु के सारांश और उद्देश्य का उल्लेख पूर्वापर शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है -
नैतिक बल जिसमें होता है,
हर प्रतिकूल परिस्थिति में वह,
सदा सत्य पर अटल रहेगा।
किन्तु भोग सुख लिप्त सदा जो,
दास परिस्थिति का बन जाता,
निज गुन दुष्ट कर्म दिखलाता।
यह विचार ही सार भाव है,
इस कृति की अन्तर्गाथा का,
कृति-प्रणयन उद्देश्य यही है।
भाव सफल तब ही होता है,
ईश्वर की हो कृपा, अन्यथा,
विधि-वश पर वश किसका चलता।
हर प्रतिकूल परिस्थिति में वह,
सदा सत्य पर अटल रहेगा।
किन्तु भोग सुख लिप्त सदा जो,
दास परिस्थिति का बन जाता,
निज गुन दुष्ट कर्म दिखलाता।
यह विचार ही सार भाव है,
इस कृति की अन्तर्गाथा का,
कृति-प्रणयन उद्देश्य यही है।
भाव सफल तब ही होता है,
ईश्वर की हो कृपा, अन्यथा,
विधि-वश पर वश किसका चलता।
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