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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

 

।।श्रीहरिः।।

गोविन्द

गोवर्धन बड़ा सुन्दर गाँव है। गाँवमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी ही बस्ती अधिक है। गाँवके बीचमें एक मन्दिर है, जिसमें श्रीनाथजी महाराजकी बड़ी ही सुन्दर मूर्ति विराजमान है। उनके चरणोंमें नूपुर, गलेमें मनोहर वनमाला और मस्तकपर मोरमुकुट शोभित हो रहा है। मुँघराले बाल हैं, नेत्रोंकी बनावट मनोहारिणी है और पीताम्बर पहने हुए हैं। मूर्तिमें इतनी सुन्दरता है कि देखनेवालोंका मन ही नहीं भरता। मन्दिरके पास ही एक गरीब ब्राह्मणका घर था। ब्राह्मण था गरीब, परन्तु उसका हृदय भगवद्भक्तिके रंगमें राँगा हुआ था। ब्राह्मणी भी अपने पति और पतिके भी परमपति परमात्माके प्रेममें रत थी। उसका स्वभाव बड़ा ही सरल और मिलनसार था। कभी किसीने उसके.मुखसे कड़ा शब्द नहीं सुना। पिता-माताके अनुसार ही प्रायः पुत्रका स्वभाव हुआ करता है। इसी न्यायसे ब्राह्मण-दम्पतिका पुत्र गोविन्द भी बड़े सुन्दर स्वभावका बालक था। उसकी उम्र दस वर्षकी थी। गोविन्दके शरीरकी बनावट इतनी सुन्दर थी कि लोग उसे कामदेवका अवतार कहनेमें भी नहीं सकुचाते थे।

गोविन्द गाँवके बाहर अपने साथी सदानन्द और रामदासके साथ खेला करता था। एक दिन खेलते-खेलते संध्या हो गयी। गोविन्द घर लौट रहा था तो उसने मन्दिरमें आरतीका शब्द सुना। शङ्ख, घण्टा, घड़ियाल और झाँझकी आवाज सुनकर गोविन्दकी भी मन्दिरमें जाकर तमाशा देखनेकी इच्छा हुई और उसी क्षण वह दौड़कर नाथजीकी आरती देखनेके लिये मन्दिरमें चला गया।

नाथजीके दर्शन कर बालकका मन उन्हीं में रम गया। गोविन्द इस बातको नहीं समझ सका कि यह कोई पाषाणकी मूर्ति है। उसने प्रत्यक्ष देखा कि एक जीता-जागता मनोहर बालक खड़ा हँस रहा है। गोविन्द नाथजीकी मधुर मुसुकानपर मोहित हो गया। उसने सोचा, ‘यदि यह बालक मेरा मित्र बन जाय और मेरे साथ खेले तो बड़ा आनन्द हो।' इतनेमें आरती समाप्त हो गयी। लोग अपने-अपने घर चले गये। पुजारी भी मन्दिर बंद करके चले गये। एक गोविन्द रह गया, जो मन्दिरके बाहर अँधेरेमें खड़ा नाथजीकी बाट देखता था। गोविन्दने जब चारों ओर देखकर यह जान लिया कि कहीं कोई नहीं है, तब उसने किवाड़ोंके छेदसे अंदरकी ओर झाँककर अकेले खड़े हुए श्रीनाथजीको हृदयकी बड़ी गहरी आवाजसे गद्गद-कण्ठ हो प्रेमपूर्वक पुकारकर कहा-‘नाथजी! भैया! क्या तुम मेरे साथ नहीं खेलोगे? मेरा मन तुम्हारे साथ खेलनेके लिये बहुत छटपटा रहा है। भाई! आओ, देखो, कैसी चाँदनी रात है, चलो, दोनों मिलकर मैदानमें गुल्ली-डंडा खेलें। मैं सच कहता हूँ, भाई! तुमसे कभी झगड़ा या मारपीट नहीं करूंगा।'

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

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