गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
सरलहृदय बालकके अन्तःकरणपर आरतीके समय जो भाव पड़ा, उससे वह उन्मत्त हो गया। परमात्माके मधुर और अनन्त प्रेमकी अमृतमयी मलयवायुसे गोविन्द प्रेममग्न होकर मन्दिरके अंदर खड़े हुए उस भक्त-प्राण-धन गोविन्दको रो-रोकर पुकारने लगा। बालकके अश्रुसिक्त शब्दोंने बड़ा काम किया। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४।११) की प्रतिज्ञाके अनुसार नाथजी मन्दिरमें नहीं ठहर सके। भक्तके प्रेमावेशने भगवान्को खींच लिया। गोविन्दने सुना, मानो अंदरसे आवाज आती है—‘भाई! चलो, आता हूँ, हम दोनों खेलेंगे!'
सरल बालकका मधुर प्रेम भगवान्को बहुत शीघ्र खींचता है। बालक ध्रुवके लिये चतुर्भुजधारी होकर वनमें जाना पड़ा। भक्त प्रह्लादके लिये अनोखा नरसिंहवेष धारण किया और व्रजबालकोंके साथ तो आप गौ चराते हुए वन-वन घूमे। आज गोविन्दकी मतवाली पुकार सुनकर उसके साथ खेलनेके लिये मन्दिरसे बाहर चले आये! धन्य प्रभु! न मालूम तुम मायाके साथ रमकर कितने खेल खेलते हो? तुम्हारा मर्म कौन जान सकता है? मामूली मायावीके खेलसे ही लोग भ्रममें पड़ जाते हैं, फिर तुम तो मायावियोंके सरदार ठहरे! बेचारी माया तो तुम्हारे भक्तचञ्चरीकसेवित चरण-कमलोंकी चेरी है, अतएव तुम्हारे खेलके रहस्यको कौन समझ सकता है? इतना अवश्य कहा जा सकता है। कि तुम्हें अपने भक्तोंके साथ खेलना बहुत ही प्यारा लगता है। इसलिये तुम धन्नाके साथ गायें दुहते फिरे थे और इसीलिये आज बालक गोविन्दके पुकारते ही उसके साथ खेलनेको तैयार हो गये!
नाथजी हँसते हुए गोविन्दके पास आकर खड़े हो गये, गोविन्दने बड़े प्रेमसे उनका हाथ पकड़ लिया। आज गोविन्दके आनन्दका ठिकाना नहीं है, वह कभी नाथजीके मुखकमलको देखकर मतवाला होता है, तो कभी उनके कर-कमलोंका स्पर्श कर अपनेको धन्य मानता है। कभी उनके नुकीले नेत्रोंको निहारकर मोहित होता है, तो कभी उनके सुरीले शब्दोंको सुनकर फिर सुनना चाहता है। गोविन्दके हृदयमें आनन्द समाता नहीं। बात भी ऐसी ही है। जगत्का समस्त सौन्दर्य जिसकी सौन्दर्यराशिका एक तुच्छ अंश है, उस अनन्त और असीम रूपराशिको प्रत्यक्ष प्राप्त कर ऐसा कौन है जो मुग्ध न हो!
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