गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
नये मित्रको साथ लेकर गोविन्द गाँवसे बाहर आया।
चन्द्रमाकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी, प्रियतमकी प्राप्तिसे सरोवरों में कुमुदिनी हँस रही थी, पुष्पोंकी अर्धविकसित कलियोंने अपनी मन्द-मन्द सुगन्धसे समस्त वनको मधुमय बना रखा था। मानो प्रकृति अपने नाथकी अभ्यर्थना करनेके लिये सब तरहसे सज-धजकर भक्तिपूरित पुष्पाञ्जलि अर्पण करनेके लिये पहलेसे तैयार थी। ऐसी मनोहर रात्रिमें गोविन्द नाथजीको पाकर अपने घर-बार, पिता-माता और नींद-भूखको सर्वथा भूल गया। दोनों मित्र बड़े प्रेमसे तरह-तरहके खेल खेलने लगे।
गोविन्दने कहा था कि मैं झगड़ा या मारपीट नहीं करूंगा; परंतु विनोदप्रिय नाथजीकी मायासे मोहित होकर वह इस बातको भूल गया। खेलते-खेलते किसी बातको लेकर दोनों मित्र लड़ पड़े। गोविन्दने क्रोधमें आकर नाथजीके गालपर एक थप्पड़ जमा दिया और बोला कि ‘फिर कभी मुझे खिझाया तो याद रखना मारते-मारते पीठ लाल कर दूंगा।' सूर्य-चन्द्र और अनल-अनिल जिसके भयसे अपने-अपने काममें लग रहे हैं, स्वयं देवराज इन्द्र जिसके भयसे समयपर वृष्टि करनेके लिये बाध्य होते हैं और भयाधिपति यमराज जिसके भयसे पापियोंको भय पहुँचानेमें व्यस्त हैं, वही त्रिभुवननाथ आज नन्हें-से बालक भक्तके साथ खेलते हुए उसकी थप्पड़ खाकर भी कुछ नहीं बोलते। धन्य है!
नाथजी रोने लगे और बोले-‘भाई गोविन्द! तुमने कहा था न कि मारूंगा नहीं, फिर मुझे क्यों मारा?' नाथजीकी इस बातको सुनकर और उनको रोते देखकर गोविन्दका कलेजा भर आया। उसने दौड़कर नाथजीके आँसू पोंछे, उन्हें अपने गले लगा लिया और बोला, “भाई! रो मत, तू मुझे बहुत ही प्यारा लगता है, तेरी आँखों में आँसू देखते ही मेरा कलेजा फटता है। दोनों
फिर खेलने लगे। रात अधिक हो गयी। भगवान्ने यह सोचकर कि इसके माता-पिता बड़े चिन्तित होंगे, अपनी मायासे गोविन्दके हृदयमें घर जानेके लिये प्रेरणा की। गोविन्दने कहा, ‘नाथजी! बड़ी देर हो गयी है, मैं घर जाता हूँ, अब कल फिर खेलेंगे।' नाथजीने अनुमति दी। गोविन्द घर चला गया और अनाथोंके एकमात्र नाथ श्रीनाथजी अपने मन्दिरमें चले गये।
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