गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
प्रतिदिन इसी प्रकार खेल होने लगा। गोविन्द इस नयनमनमोहन नये मित्रको पाकर पुराने दोनों मित्रोंको भूल गया। एक दिन श्रीनाथजी महाराज खेलते-खेलते गोविन्दको दाँव न देकर भगे। गोविन्द भी पीछे-पीछे दौड़ा। नाथजी महाराज मन्दिरमें जाकर घुस गये। मन्दिरका द्वार बंद था, अतएव गोविन्द अंदर नहीं जा सका, नाथजीका अन्याय समझकर वह मन्दिरके बाहर खड़ा होकर उन्हें प्रणयकोपसे खरी-खोटी सुनाने लगा। भक्तमालके रचयिता रीवाँनरेश रघुराजसिंहजी लिखते हैं-
भगि मंदिर भीतर कृष्ण गये, तब गोबिंद भीतर जान लगो।
जब पंडन मारि निकासि दियो, तब बाहर ही अति कोप जगो॥
महि ठोंकत डंड, प्रचारत गारि दे, तू कढिहैं कबलों ने भगो।
इत बैठे रहौंगो मैं तेरे लिये, नहि दाँव दियो अहै पूरो ठगो॥
मन्दिर खुलते ही गोविन्द अंदर घुस गया और डंडेसे नाथजीकी मूर्तिको पीटकर बोला कि ‘फिर कभी भागेगा?' पुजारियोंने हा! हा! करके गोविन्दको पकड़ा और मार-पीटकर मन्दिरसे बाहर निकाल दिया, इससे उसका प्रेम-प्रकोप और भी बढ़ा और वह कहने लगा, ‘नाथजी! तैने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है, दाँव न देकर भाग आया और अब मुझे अपने आदमियोंसे मरवाकर बाहर निकलवा दिया, अच्छा कल देखूँगा,
जबतक तुझे इसका बदला न दूंगा तबतक पानी भी नहीं पीऊँगा।' यों कहकर गोविन्द रूठकर चला गया और जाकर गोविन्दकुण्डपर बैठ गया। इधर मन्दिरमें भोग तैयार होनेपर पुजारीको प्रत्यादेश हुआ कि तुमलोगोंने मेरे जिस भक्तको मारकर बाहर निकाल दिया है, वह जबतक नहीं आवेगा तबतक मेरा भोग नहीं लग सकता। उसके अंगपर जो मार पड़ी है वह सब मेरे शरीरपर लगी है।' पुजारीको क्या पता था कि भक्त और भक्तवत्सल अभिन्न होते हैं? खैर! पुजारीजी बड़े हैरान हुए, दौड़े और खोजते-खोजते कुण्डपर गोविन्दको पाकर कहने लगे, ‘भाई! चलो, नाथजीने तुम्हें बुलाया है, वे तुमसे हार मानते हैं और फिर तुम्हारे साथ खेलनेका वादा करते हैं।' ब्राह्मणके वचन सुनकर गोविन्दने कहा, ‘जाता तो नहीं; वही मेरे पास आता और जब मैं उसे खूब पीटता, तभी वह सीधी राहपर आता, पर अब जब कि उसने हार मान ली है, तब तो चलो, चलता हूँ।' यों कहकर गोविन्द मन्दिरमें गया और विजय-गर्वसे हँसता हुआ बोला-‘क्यों नाथजी! फिर कभी करोगे ऐसी चातुरी? अच्छा हुआ जो तुमने हार मानकर मुझे बुला लिया, नहीं तो ऐसा करता जो जन्मभर याद रखते।' गोविन्दने यह बातें कह तो दीं, परंतु जब नाथजीका मुख उदास देखा तो उसके सरल हृदयमें बड़ी वेदना हुई। वह बोला-‘भाई! तुमने अभीतक भोग क्यों नहीं लगाया? तुम्हारे मुखको उदास देखकर मेरे प्राण रोते हैं। भाई! फिर कभी तुम्हें नहीं मारूंगा, तुम्हारी उदासी मुझसे सही नहीं जाती। मैं तुमसे अब नहीं रूकुँगा, तुम राजी हो जाओ और भोग लगाओ।'
मन्दिरके द्वार बंद हो गये। नाथजी प्रत्यक्ष होकर बोले-‘भाई! तुम भी तो भूखे हो। आओ, दोनों मिलकर खायँ।' नाथजीका प्रसन्न मुख देखकर गोविन्दका मन-सरोज भी खिल उठा? दोनों हँसने लगे। आनन्दकी ध्वनिसे मन्दिर भर गया। गोविन्द, गोविन्दके हाथों बिक गये।
अकस्मात् द्वार खुला, गोविन्दने दिव्य चक्षु प्राप्त किये और उसे सर्वत्र केवल नाथजी ही दीखने लगे।
बोलो भक्त और उनके भगवान्की जय!
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