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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

ब्राह्मणने पहले तो कुछ ध्यान नहीं दिया, परंतु बालक धन्नाने जब बारम्बार रोकर गिड़गिड़ाकर उसे बेचैन कर दिया, तब बला टालनेके लिये एक काले पत्थरको उठाकर उसे दे दिया और कहा कि ‘बेटा! यह तुम्हारे भगवान् हैं; तुम इन्हींकी पूजा किया करो।' धन्नाको मानो यही गुरुदीक्षा मिल गयी। इसी अल्पकालके सत्सङ्ग और सरल भक्तिके प्रतापसे बालक धन्नाजी प्रभुको अत्यन्त शीघ्र प्रसन्न करनेमें समर्थ हुए। सत्सङ्गका माहात्म्य भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं उद्धवजीसे कहते हैं-

न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च।
न स्वाध्यायस्तपस्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा॥
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः।
यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम्॥
सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः।
गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः॥
विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः।
रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन् युगेऽनघ॥
बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः।
वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः॥
सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः।
व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे॥
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः।
अव्रतातप्ततपसः सत्सङ्गान्मामुपागताः॥
केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः।
येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा॥
यं न योगेन सांख्येन दानव्रततपोऽध्वरैः।
व्याख्यास्वाध्यायसंन्यासैः प्राप्नुयाद् यत्नवानपि॥
तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च॥
मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्।
याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः॥
(श्रीमद्भा० ११। १२। १–९, १४-१५)

‘हे उद्धव! समस्त सङ्गोंसे छुड़ानेवाले सत्सङ्गद्वारा जिस प्रकार मैं पूर्णरूपसे वश होता हूँ, उस प्रकार योग, सांख्य, धर्म, वेदाध्ययन, तपस्या, त्याग, अग्निहोत्र, कुआँ, बावली खुदवाना और बाग लगवाना, दान-दक्षिणा, व्रत, यज्ञ, मन्त्र, तीर्थयात्रा, नियम और यम आदि अन्यान्य सब साधनोंसे नहीं होता। भिन्न-भिन्न युगोंमें दैत्य, राक्षस, पक्षी, मृग, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण, यक्ष, विद्याधर और मनुष्यों में राजसी-तामसी प्रकृतिके वैश्य-शूद्रस्त्री एवं अन्त्यज आदि जातियोंके अनेक मनुष्य केवल सत्सङ्गके प्रभावसे मेरे परमपदको प्राप्त हुए हैं। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयासुर, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गज, जटायु, तुलाधार वैश्य, व्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ और यज्ञपत्नियाँ एवं ऐसे ही अन्यान्य अनेक जन केवल सत्सङ्गके प्रभावसे अनायास ही मेरे दुर्लभ पदको प्राप्त हुए हैं। देखो, गोपिका, यमलार्जुन, गौ, कालिय नाग एवं व्रजके अन्यान्य मृग, पक्षी और जड, तृण, तरु, लता, गुल्म आदि सब केवल सत्सङ्गके प्रभावसे अनायास ही मुझे पाकर कृतार्थ हुए हैं। उक्त अज्ञानी और जडोंमेंसे किसीने वेद नहीं पढ़े, ऋषि-मुनियोंकी उपासना नहीं की, न कोई व्रत रखा और न कोई तप किया। हे उद्धव! इसीसे कहते हैं कि योग, ज्ञान, दान, व्रत, तप, यज्ञ, व्याख्या, स्वाध्याय आदिके द्वारा यत्न करनेपर भी मैं दुर्लभ हूँ, केवल भक्ति और सत्सङ्ग ही ऐसा साधन है। जिससे मैं सुलभ होता हैं। इसलिये हे मित्र उद्धव! तुम श्रुति, स्मृति, प्रवृत्ति, निवृत्ति, श्रोतव्य और श्रुत-सब छोड़कर सब शरीरधारियोंके आत्मारूप एकमात्र मुझको भक्तिपूर्वक अपना आश्रय बनाओ। मेरी शरणमें आनेसे तुम भयसे छूट जाओगे।' अस्तु!

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

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