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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

धन्नाजीकी बात सुनकर ब्राह्मणने आश्चर्यसे पूछा, 'कहाँ है वह तुम्हारा भगवान्?' धन्नाने कहा, “क्या तुम्हें दीखता नहीं, यह देखो, मेरे पास ही तो खड़ा है।' ब्राह्मणको दर्शन नहीं हुए, उसने कहा, ‘कहाँ धन्ना! मुझे तो नहीं दीखता। धन्ना भगवान्से कहने लगे, ‘नाथ! यही ब्राह्मण तो मुझे तुम्हारी मूर्ति दे गया था, अब इसे दर्शन क्यों नहीं देते!' भगवान् बोले, ‘धन्ना! तुमने जन्मजन्मान्तरके महान् पुण्य और शुद्ध भक्तिसे मेरे दर्शन प्राप्त किये हैं। इस ब्राह्मणमें इतना तपोबल नहीं है। परंतु इसने तुम्हारा गुरु बनकर बहुत बड़ा पुण्य संचय कर लिया है, इस पुण्यसे इसे मेरे दर्शन हो सकेंगे। तुम इसकी गोदमें जा बैठो, तुम्हारे पवित्र शरीरके स्पर्शसे इसे दिव्य नेत्र प्राप्त होंगे, जिससे यह मुझे देख सकेगा।' धन्नाने ऐसा ही किया, भक्त ब्राह्मण भक्तवत्सल भगवान्की अपूर्व छटा देखकर कृतकृत्य हो गया! तदनन्तर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

धन्नाजीकी बाललीला समाप्त हुई। इसलिये भगवान्ने भी उनसे अब बालकोचित सम्बन्ध नहीं रखा। भगवानुने धन्नाजीको परम्परारक्षाके लिये नियमानुसार गुरुमन्त्र ग्रहण करनेकी आज्ञा दी। धन्नाजी काशी गये और उन्होंने भक्तश्रेष्ठ आचार्यश्री श्रीरामानन्दजीसे दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर वह घर लौट आये। उन्हें भगवान्का तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया। अबसे धन्नाजी अपने परम गुप्त धनको हृदयकी गुप्त गम्भीर गुहामें ही देखने लगे।

एक समय धन्नाजीके पिताने उन्हें खेतमें गेहूँ बोनेके लिये बीज देकर भेजा। रास्तेमें कुछ संत मिल गये। संत भूखे थे, उन्होंने धन्नाजीसे भिक्षा माँगी। धन्नाजीको तो सर्वत्र अपने श्यामसुन्दर दीखते थे, अतः संतरूपमें भी उन्हें वही दिखलायी दिये, उनके लिये धन्नाके पास अदेय वस्तु ही क्या थी? उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे समस्त गेहूं संतोंको दे दिये।

यह स्मरण रखना चाहिये कि जहाँ अभावग्रस्त गरीब खानेके लिये अन्न चाहते हैं, वहाँ मानो साक्षात् भगवान् ही उनके रूपमें हमसे सेवा चाहता है, ऐसे मौकेपर चूकनेवालोंको पीछे बहुत पछताना पड़ता है। धन्नाजी-सरीखे भक्त भला क्यों चूकने लगे?

धन्नाजीने गेहूँ तो दे दिये, परंतु माता-पिताके भयसे यों ही घर लौटना उचित न समझकर वह खेत चले गये और यों ही जमीनपर हल चलाकर घर लौट आये। भक्तकल्पतरु भगवान्ने धन्नाके बिना ही माँगे उसका गौरव बढ़ानेके लिये अपनी अघटनघटना-पटीयसी मायासे खेतको सबके खेतोंसे बढ़कर हरा-भरा कर दिया। धन्नाजीके खेतकी बहुत प्रशंसा होने लगी। यह सब सुनकर धन्नाजीने सोचा कि मैंने तो खेतमें एक भी बीज नहीं डाला था, फिर यह सुन्दर खेती कैसे हो गयी? खेत सूखा पड़ा होगा, इससे लोग सम्भवतः दिल्लगीसे ऐसा कहते होंगे। परंतु जब उन्होंने स्वयं खेत जाकर देखा और जब उसे लहलहाता और उमड़ता पाया, तब तो उनके आश्चर्यका पार नहीं रहा। प्रभुकी माया समझकर मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया! धन्नाजीके हृदयमें प्रेमका समुद्र उमड़ चला! नाभाजी महाराज लिखते हैं-

घर आये हरिदास तिन्हैं गोधूम खवाये।
तात मात डर थोथ खेत लंगूर बवाये॥
आसपास कृषिकार खेतकी करत बड़ाई।
भक्त भजेकी रीति प्रगट परतीति जु पाई॥
अचरज मानत जगतमें कहुँ निपज्यो कहुँ वै बयो।
धन्य धनाके भजनको, बिनहि बीज अंकुर भयो।

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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