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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

बालक-भक्तके सरल सुहावने वचनोंको सुनकर भगवान् मुसकराये और बची हुई रोटी उन्होंने धन्नाजीको दे दी। आज इस धन्नाजीकी रोटीके अमृतसे बढ़कर स्वादका बखान शेष-शारदा भी नहीं कर सकते। भक्तवत्सल, करुणानिधि कौतुकी भगवान् प्रतिदिन इसी प्रकार प्रकट होकर अपनी जन-मन-हरण रूपमाधुरीसे धन्नाजीका मन मोहने लगे। मनुष्य जबतक यह अनोखा रूप नहीं देखता तभीतक उसका मन वशमें रह सकता है, जिसे एक बार उस रूप-छटाकी झाँकी करनेका सौभाग्य प्राप्त हो गया, उसीका मन सदाके लिये हाथसे जाता रहा, फिर उसे एक क्षणके लिये भी उस सुन्दरकी छबिको छोड़कर संसारकी कोई चीज नहीं सुहाती—कोई बात नहीं भाती। धन्नाजीकी भी यही दशा हुई। यदि वह एक क्षणभरके लिये उस मनमोहनको आँखोंके सामने या हृदय-मन्दिरमें न देख पाते तो उसी समय मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ते, पलभरका भी भगवान्का वियोग उनके लिये असह्य हो उठता। इसीसे भगवान्को सदा-सर्वदा धन्नाजीके साथ या उनके हृदयधाममें रहना पड़ता। धन्नाने प्रेमरजुसे भगवान्को बाँध लिया, इसीसे वे भक्तके परम धन भगवान् भी धन्नाको एक पलके लिये अलग नहीं छोड़ सकते थे। भगवान्का तो यह प्रण ही ठहरा-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
(गीता ६।३०)

‘जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है, उससे मैं कभी अदृश्य नहीं होता और मुझसे वह कभी अदृश्य नहीं होता।

धन्नाजी कुछ बड़े हो गये, इससे माताने उन्हें गौ भी दुहनेका काम सौंप दिया। कई गायें थीं, धन्नाजी दोनों समय गौ दुहा करते। एक दिन भगवान्ने प्रकट होकर उनसे कहा, “भाई! तुम्हें अकेले इतनी गायें दुहनेमें बड़ा कष्ट होता होगा। तुम्हारी गायें मैं दुह दिया करूंगा।'

सुर-मुनि-वन्दित सकल चराचर-सेव्य अखिल विश्व-स्वामी भगवान् अपने बालक-भक्तके साथ रहकर उसकी सेवा करने लगे। धन्य! धन्नाके सुखका क्या ठिकाना है! वह निरन्तर उस परम सुखरूप परमात्माके साथ रहकर अप्रतिम, अचिन्त्य आनन्दका उपभोग कर रहा है।

कुछ दिन बाद धन्नाजीके गुरु वही ब्राह्मण-देवता धन्नाके घर फिर आये और उससे पूछने लगे कि ‘क्यों भगवान्की पूजा करते हो या नहीं?' धन्नाने हँसकर कहा, ‘महाराज! अच्छा भगवान् दे गये, कई दिनोंतक तो उसने मुझे न दर्शन दिया, न रोटी खायी; स्वयं भी भूखा रहा और मुझे भी भूखों मारा। अन्तमें एक दिन प्रकट होकर सारी रोटी चट करने लगा, बड़ी कठिनतासे मैंने हाथ पकड़कर आधी रोटी अपने लिये रखवायी। परंतु महाराज! वह है बड़ा प्रेमी, सदा मेरे साथ रहता है। दोनों समय मेरी गायें दुह देता है। मैं भी उसे छोड़ नहीं सकता। वह बड़ा ही प्यारा और सुन्दर है, मेरे तो प्राण उसीमें बसते हैं।

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

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