गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
इधर कुन्तलपुर-नरेशने चम्पकमालिनीका हाथ चन्द्रहासको पकड़ाकर आशीर्वाद दिया और उसी समय गालवमुनिकी आज्ञासे चन्द्रहासका राज्याभिषेक भी हो गया। चम्पकमालिनीके साथ चन्द्रहासने मुनिकी अनुमतिसे गान्धर्व-विवाह कर लिया। राजा सब कुछ छोड़छाड़कर मिट्टी, पत्थर और सुवर्णमें समबुद्धि कर वनको चले गये-
‘वनं जगाम सन्त्यज्य समलोष्टाश्मकाञ्चनः।'
धृष्टबुद्धिने सोचा था कुछ और पर हुआ कुछ और ही–'तेरे मन कुछ और है कर्ताके कछु और।' दूसरे दिन प्रातःकाल धृष्टबुद्धिने जब चन्द्रहासके साथ चम्पकमालिनीके विवाह और उसके राज्याभिषेक होने तथा प्रिय पुत्र मदनके घातकद्वारा मारे जानेका समाचार सुना, तब तो उसके सिरपर वज्र ही टूट पड़ा। सत्य है—‘परार्थे योऽवटं कर्ता तस्मिन् स पतति ध्रुवम्।' दूसरोंके लिये खाईं खोदनेवाला स्वयं निश्चय ही उसमें पड़ता है!
धृष्टबुद्धि हतबुद्धि होकर भवानीके मन्दिरकी ओर दौड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि प्राणाधिक प्रिय पुत्रका शरीर दो टुकड़े हुए पड़ा है। उसने शोकसे व्याकुल होकर नाना प्रकार विलाप करते हुए उसी समय तलवारसे आत्महत्या कर ली!
श्वशुर धृष्टबुद्धिको उन्मत्तकी तरह दौड़ते देखकर चन्द्रहास भी उसके पीछे-पीछे चला था। मन्दिरमें जाकर चन्द्रहासने देखा कि पिता-पुत्र दोनों मरे पड़े हैं। चन्द्रहासने इन दोनों जीवोंकी मृत्युमें अपनेको कारण समझकर स्वयं मरना चाहा। ज्यों ही उसने तलवार म्यानसे निकाली त्यों ही भवानीने साक्षात् प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे खींचकर अपनी गोदमें बैठा लिया। जन्मसे मातृहीन चन्द्रहासको आज जगज्जननीकी गोदीमें बैठनेसे बड़ी प्रसन्नता हुई।
माता बोली, “मेरे लाल चन्द्रहास! धृष्टबुद्धि बड़ा दुष्ट था, उसने तुझे मारनेके लिये बड़े-बड़े जाल रचे थे, अच्छा हुआ वह मारा गया। हाँ, यह मदन भक्त और तेरा प्रेमी था, परंतु इसने तेरे विवाहके समय धन-ऐश्वर्यके दानको पर्याप्त न समझकर अपना शरीर तुझे अर्पण करनेकी प्रतिज्ञा की थी, अतः आज यह भी उऋण हो गया। तू शोक छोड़कर राज्य कर। मैं प्रसन्न हूँ, इच्छित वर माँग।'
चन्द्रहासने कहा, “जननी! तुम वर देना चाहती हो, मुझपर प्रसन्न हो, तो पहला वर तो मुझे यह दो कि ‘हरौ भक्तिः सदा भूयान्मम जन्मनि जन्मनि।' ‘हरिमें मेरी जन्म-जन्ममें भक्ति सर्वदा बनी रहे और दूसरा वर यह दो कि मेरे लिये मरे हुए ये दोनों व्यक्ति इसी समय जी उठे। श्वशुर धृष्टबुद्धिने मुझे मारनेके लिये जो कुछ किया, उसका मुझे तनिक भी दुःख नहीं है; मनुष्य अज्ञानवश यों किया ही करता है। माता! इसे क्षमा करो, इसे सुबुद्धि दो, इसके पापोंका विनाश कर इसे भगवान्की विमल भक्ति प्रदान करो।'
भवानी प्रेमभरी वाणीसे “तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गयीं। दोनों पिता-पुत्र सोकर जगनेकी तरह उठ बैठे और उन्होंने चन्द्रहासको गले लगा लिया।
बोलो भक्त और उनके भगवान्की जय!
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