गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
थोड़ी ही देरमें चन्द्रहासकी आँखें खुलीं, संध्या होने आयी थी। उसने तुरंत ही जाकर मदनको पत्र दे दिया, पत्र पढ़कर मदनको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणोंकी आज्ञासे उसी दिन गोधूलिलग्नमें विषयाके साथ चन्द्रहासका विवाह बड़े समारोहके साथ हो गया। मदनने याचकोंको मुक्त-हस्तसे दान देकर संतुष्ट किया। कन्यादानके समय कुन्तलपुरनरेश स्वयं पधारे थे। राजकुमारकी मनमोहिनी रूप-गुण-राशि देखकर राजाने विचार किया कि 'न तो चम्पकमालिनीके लिये इससे अधिक योग्य कोई दूसरा वर ही मिल सकता है और न राज्यशासनके लिये ऐसा बलवीर्य-बुद्धि और शील-सदाचारसम्पन्न कोई उत्तराधिकारी ही!' राजाने उसी क्षण अपने मनमें धीर-वीर राजकुमार चन्द्रहासके हाथ राजपुत्रीसहित राज्य समर्पण करनेका निश्चय कर लिया!
तीन दिन बाद धृष्टबुद्धि लौटा। सर्वथा विपरीत दशा देखकर उसके दिलपर गहरी चोट लगी; परंतु उसने अपने मनका कुभाव किसीपर प्रकट होने नहीं दिया। उसके द्वेष-हिंसापूर्ण मलिन अन्तःकरणने यही निश्चय किया कि 'कन्या चाहे विधवा हो जाय पर इस शत्रुका वध अवश्य करना होगा।' यही दुष्ट-हृदयकी पराकाष्ठा है।
नगरसे दूर वनमें पहाड़ीपर भवानीका मन्दिर था, धृष्टबुद्धिने वहाँ एक निर्दय घातकको यह समझाकर भेज दिया कि आज संध्याके बाद जो कोई वहाँ जाय उसीका सिर उतार लेना। इधर चन्द्रहाससे कपटकी हँसी हँसते हुए उसने कहा, 'भवानी हमारी कुलदेवी हैं, किसी भी शुभ कार्यके अनन्तर ही हमारे यहाँ भवानीपूजनकी कुलरीति है; अतएव तुम आज ही संध्याको वहाँ जाकर भवानीके भेंट चढ़ा आना।'
श्वशुरकी आज्ञासे सरलहृदय चन्द्रहास सामग्री लेकर भवानीके स्थानकी ओर चला। मनुष्य मन-ही-मन कितनी कुटिल कामना करता हुआ नाना प्रकारसे शेखचिल्लीकी तरह महल बनाता है, पर ‘करी गोपालकी सब होय।'
कुन्तलपुर-नरेशके मनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने आज ही राज्य त्यागकर परमात्म-पद-प्राप्तिका साधन करनेके लिये वन जानेका निश्चय कर लिया; परंतु जानेसे पूर्व राजकुमारीका विवाह करना और किसीको राज्यका उत्तराधिकारी बनाना—ये दो आवश्यक काम करने थे। राजाने पूर्वनिश्चयके अनुसार मन्त्रीपुत्र मदनको बुलाकर कहा—बेटा! मेरी आज ही वन जानेकी इच्छा है, चम्पकमालिनीका हाथ किसी योग्य राजपुत्र बालकको सौंपना चाहता हूँ, राज्यका उत्तराधिकार भी देना है। हमलोगोंके सौभाग्यसे भगवान्ने कृपाकर चन्द्रहासको यहाँ भेज दिया है। वह सब तरहसे योग्य है, तुम अभी जाकर चन्द्रहासको यहाँ भेज दो!'
राजाकी बात सुनकर सरलहृदय मदनके हर्षका पार न रहा। वह दौड़ा बहनोईको बुलाने। पिताकी बुरी नीयतका उसे कुछ भी पता नहीं था। चन्द्रहास भवानीके मन्दिरकी ओर जाता हुआ उसे रास्तेमें मिला। उसने राजाज्ञा सुनाकर चन्द्रहासको राजमहलमें भेज दिया और उससे पूजाकी सामग्री लेकर स्वयं सीधा ही भवानीके मन्दिर चला गया। कहना नहीं होगा कि मन्दिरमें पहुँचते ही घातककी तीक्ष्णधार तलवारने उसके शरीरके दो टुकड़े कर दिये! चन्द्रहास बच गया -
जाको राखे साँइयाँ, मार न सकिहैं कोय।
बार न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥
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