गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
धार्मिक राजा और धीर-वीर राजकुमारने उसका हृदयसे स्वागत किया। धृष्टबुद्धि युवराजके मुखकमलको देखकर चकित हो गया और एकटकी लगाकर उसकी ओर देखने लगा, पर चन्द्रहासको पहचानते ही उसके हृदयमें आग लग गयी, उसने मन-ही-मन जाल रचा। छलसे चन्द्रहासका वध करनेका निश्चय कर उसने बड़े पुत्र मदनके नाम एक गुप्त पत्र लिखा और 'विष रस भरा कनक घटु जैसे की उक्तिको चरितार्थ करते हुए कपटसे हँसकर पत्र चन्द्रहासके हाथमें देकर कहा, ‘राजकुमार! बड़ा आवश्यक कार्य है, इससे तुम्हारा और हमारा बड़ा हित होगा, अतएव आज ही कुन्तलपुर जाकर यह पत्र कुमार मदनको दे दो। देखना, रास्तेमें पत्र खुलने न पावे और न इसका रहस्य मदनके सिवा अन्य कोई जाने ही!'
चन्द्रहास घोड़ेपर सवार होकर उसी क्षण चल दिया। कुन्तलपुर वहाँसे चौबीस कोस था। पहुँचते-पहुँचते दिन ढल गया। नगरसे बाहर कुन्तलपुर-नरेशका सुन्दर बाग था। चन्द्रहास थकान मिटाने और जल पीनेके लिये बगीचेमें ठहर गया, सुहावने सरोवरमें उसने स्वयं जल पिया और घोड़ेको पिलाया! रास्तेकी थकावट थी, घोड़ेको एक ओर बाँधकर वह वृक्षकी छायामें लेट गया। शीतल-मन्द-सुगन्ध वायुके स्पर्शसे उसे नींद आ गयी।
उसी समय राजकुमारी चम्पकमालिनी और मन्त्रिकन्या विषया सखियोंसहित बागमें टहलने आयी थी। नाना प्रकारसे आमोद-प्रमोदकर राजकुमारी और अन्यान्य सखियाँ तो चली गयीं। भगवत्प्रेणासे विषया वहीं रह गयी। अनंद-मद-मोचन राजकुमार चन्द्रहासको देखते ही उसका मन मोहित हो गया।
मन-ही-मन उसने राजकुमारको पतिरूपमें वरण कर लिया। उसने देखा कुमारके हाथमें एक पत्र है! विषयाने धीरेसे पत्र खींच लिया। भाई मदनके नाम पिताजीके हस्ताक्षरयुक्त पत्र देखकर उसने कुतूहलवश खोल दिया, परंतु पत्र पढ़ते ही उसका हृदय व्याकुल हो उठा, शरीर थर्रा गया, मुखपर विषाद छा गया। पत्रमें लिखा था-
स्वति श्री प्रिय पुत्र मदन! देखत यह पाती।
विष दे देना जिससे हो मम शीतल छाती॥
कुल विद्या सौन्दर्य शूरता कुछ न देखना।
मदन शत्रु इस राजकुँवरको हृदय लेखना॥
विषयाने विचार किया, ऐसे सुन्दर सलोने सिंहशावक राजकुमारको पिताजी विष क्यों दिलवाने लगे? हो-न-हो मेरे योग्य वाञ्छित वर देखकर आनन्द-विह्वलतामें उनसे लिखनेमें भूल हो गयी है। वास्तवमें ‘विष दे देना' की जगह ‘विषया देना' लिखना चाहिये था। पिताजी छाती शीतल होनेकी बात लिखते हैं; ऐसे नरश्रेष्ठको विष देकर भला किसकी छाती शीतल होगी? बड़े भाग्यसे ऐसे दामाद मिलते हैं; इसीसे पिताजीने कुल, विद्या आदि। कुछ भी न देखकर ‘मदन शत्रु' यानी सुन्दरतामें कामदेवको भी परास्त करनेवाले इस नयनाभिराम राजपुत्रके हाथ तुरंत मुझे दे देना चाहा है। परमेश्वरने बड़ा अच्छा किया, जो यह पत्र पहले मेरे हाथ लग गया, कहीं भाई साहेब भ्रमसे विष दे डालते तो महान् अनर्थ हो जाता। विषयाने तर्कसे ऐसा निश्चयकर तुरंत ‘विष दे देना, के बीचके ‘दे' को मिटाकर उसकी जगह 'या' अक्षर ‘विष' शब्दसे मिलाकर लिख दिया, जिससे ‘विषया देना' स्पष्ट पढ़ा जाने लगा। ‘मदन शत्रु' सब अलग-अलग थे, उन शब्दोंको भी जोड़ दिया। जिससे ‘मदन शत्रु' की जगह ‘मदनशत्रु’ पढ़ा जाने लगा। तदनन्तर आमके गोंदसे पत्र ज्यों-का-त्यों बंदकर राजकुमारके हाथमें रखकर वह दौड़कर कुछ दूर आगे जाती हुई सखियोंके दलमें जा मिली। राजकुमारी और सखियाँ उससे मीठी चुटकियाँ लेने लगीं।
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