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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक

भक्त बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 882
आईएसबीएन :81-293-0517-8

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भगवान् की महिमा का वर्णन...

इसी प्रकार एक दिन व्रजमें भी यज्ञकर्ता ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके अतुलित श्रीकृष्ण-प्रेमसे प्रभावान्वित होकर अपनेको धिक्कार देते हुए कहा था-

धिग् जन्म नस्त्रिवृद्विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम्।
धिक् कुलं धिक क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे॥
नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी।
यद् वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः॥
अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद्रौ॥
दुरन्तभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधान्।
नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि।
न तपो नाममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥
अथापि ह्युत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।
भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि॥
(श्रीमद्भा० १०। २३। ३९-४३)

‘भगवान् श्रीहरिसे विमुख हम ब्राह्मणोंके तीनों जन्मोंको (एक गर्भसे, दूसरा उपनयनसे, तीसरा यज्ञदीक्षासे) ब्रह्मचर्यव्रतको, बड़ी जानकारीको, उत्तम कुलको और यज्ञादि कर्मोमें हमारी निपुणताको बारम्बार धिक्कार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भगवान्की माया योगियोंको भी मोहित कर देती है। हा! लोगोंको उपदेश करनेवाले गुरु होकर भी हम आज अपने यथार्थ स्वार्थसे चूक गये। अहो! इन स्त्रियों में जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णके प्रति कैसी अनन्य-भक्ति है। जिससे इन्होंने घरकी सारी ममताको, जो कठिन मृत्यु-पाश है, क्षणभरमें तोड़ डाला। इन स्त्रियोंका न तो हमारी भाँति यज्ञोपवीतसंस्कार हुआ, न इन्होंने गुरुके यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त की, न तप किया, न आत्मज्ञानकी मीमांसा की। न इनमें शौच है और न ये यज्ञादि शुभकर्म ही करती हैं, तो भी योगेश्वरोंके ईश्वर पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णमें इनकी सुदृढ़ भक्ति है। हमारे सब संस्कार हुए हैं। तथा हममें विद्या, विवेक, तप, शौच और यज्ञादि क्रिया भी हैं तथापि बड़े शोककी बात है कि हमलोगों में भगवान्की भक्ति नहीं है।'

वास्तवमें बात भी यही सत्य है, बड़ा और बुद्धिमान् वही है जो भगवान्के चरणोंका नित्य चिन्तन करता हुआ उनकी शरण रहता है। भक्तराज प्रह्लादने इसीलिये कहा था कि बारह प्रकारके सद्गुणोंसे सम्पन्न ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरणकमलसे विमुख हो तो उसकी अपेक्षा वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने तन, मन, धन, वचन, कर्म और प्राणोंको भगवान्के समर्पण कर दिया है। वह भगवद्भक्त चाण्डाल अपने सारे कुलको पवित्र कर सकता है, परंतु वह बहुसम्मानयुक्त ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता। (श्रीमद्भा० ७।९।९) अस्तु!

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    अनुक्रम

  1. गोविन्द
  2. मोहन
  3. धन्ना जाट
  4. चन्द्रहास
  5. सुधन्वा

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