गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
भगवान्की भक्ति और श्रद्धासे रहित केवल तर्क और बुद्धिके अभिमानपर निर्भर करनेवाले घमण्डी पुरोहित शङ्खने सुधन्वापर संदेह प्रकट करते हुए राजासे कहा कि ‘राजन्! क्या बात है? तैल गरम नहीं हुआ या तेरा पुत्र कोई औषध-मन्त्र जानता है? इसका मुख प्रफुल्लित कमलकी भाँति कान्तियुक्त होकर तेजसे झलमला रहा है। इसके अङ्गपर कहीं एक फफोला भी नहीं पड़ा! हो-न-हो इसमें कुछ-न-कुछ चालाकी है। यदि तैल वास्तवमें गरम होता तो ऐसा कभी नहीं होता। गरम तैलसे मनुष्यका न जलना तो प्रकृतिसे विरुद्ध है।' हाय! धर्मशास्त्रज्ञ ब्राह्मण! आपने अभी यह नहीं जाना कि प्रभु प्रकृतिके स्वामी हैं, उनकी इच्छासे, नहीं-नहीं संकल्पमात्रसे ही असम्भव सम्भव हो जाता है-
मसकहिं करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
शङ्खसे नहीं रहा गया, उन्होंने तैलकी परीक्षाके लिये कड़ाहेमें एक नारियल डलवाया। उबलते हुए तैलमें पड़ते ही नारियल तड़ाकसे फूटा, उसके दो टुकड़े हो गये और उछलकर शङ्ख और लिखित दोनों ऋषियोंके माथेमें जाकर जोरसे लगे। मुनि घबरा गये। अब उनकी आँखें खुलीं। भगवान् और उनके भक्तोंका माहात्म्य समझमें आ गया।
मुनिवर शङ्खने नौकरोंसे पूछा कि उबलते हुए तैलमें सुधन्वाके न जलनेका क्या कारण है; क्या इसने कोई मन्त्र-जप किया था या शरीरमें कोई ऐसी जड़ी बाँध ली, जिससे इसको तैलकी ज्वाला नहीं लगी? नौकरोंने नम्रतासे कहा, 'मुनिवर! हमने तो राजकुमारको कोई भी मन्त्र जपते या औषध बाँधते नहीं देखा। हाँ, कुमारने आर्त होकर उस महामति भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण अवश्य किया था, जिसके स्मरणमात्रसे जीव जन्म-मरणके संकटसे छूट जाते हैं। ‘यस्य स्मरणमात्रेण मुच्यते योनिसङ्कटात् ॥' अब भी सुधन्वाके फरकते हुए होठ देखिये, इनसे भगवान् श्रीकृष्णके नामका कैसे सतत स्मरण हो रहा है, यह सुनकर शङ्खमुनिने अपनेको धिक्कारते हुए कहा कि इसको धन्य है, यह महान् साधु है, जो इसने भगवान् विष्णुके स्मरणमें इतना मन लगाया। हम-सरीखे व्यर्थ पण्डितोंको धिक्कार है, जो पाण्डित्यके अभिमानमें भगवान्से विमुख हो रहे हैं।
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